व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
अर्थात् योग, संयोग, संयोजन और शरीर कार्य विधि से रसों और धातुओं में विभाजित कर शरीर सहज आवश्यकता के अनुसार परिवर्तीकरण अर्थात् रसमूलक विधि से धातुओं में परिवर्तीकरण सम्पन्न होता है। यही शरीर में होने वाला क्रियाकलाप है। जिसके आधार पर ही शरीर संतुलन बना रहना स्वाभाविक क्रिया है। इसमें वंशानुषंगीय रचना की परिपूर्णता प्रधान रूप में आवश्यक रहता ही है। यह सहअस्तित्व में निहित विधि क्रम में वंशानुषंगीयता स्थापित रहता ही है। यही प्राण और रचना सूत्रों के रूप में होना देखा गया है। इस विधि से हमें स्पष्टतया समझ में आता है कि स्वास्थ्य संतुलन की आवश्यकता लक्ष्य के आधार पर ही आहार-विहार योजनाओं का होना देखा गया है। संतुलित आहार-विहार पद्धति इसी तथ्य पर आधारित रहता है।
शरीर को स्वस्थ रखने की कल्पना, विचार, चित्रण और मूल्यांकन लक्ष्य बोध सहज विधि से ही सुयोजित होना पाया गया है। चिन्हित रूप में शरीर की स्वस्थता जीवन जागृति की अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन योग्य विधि से उपयोगी होना ही एकमात्र लक्ष्य होना देखा गया है। यही सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज, परिवार मानव और स्वायत्त मानव तथा मानवीयता को परंपरा के रूप में स्पष्ट करना, प्रमाणित करना होता है। यही मानव परंपरा के धारकता का भी तात्पर्य है। मानव परंपरा मानवीयता के प्रति जागृत रहना एक स्वाभाविक क्रिया है। यह मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार पूर्वक सर्व सुलभ हो चुकी है। अतएव परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था के पाँचों आयामों में भागीदारी को निर्वाह करना ही व्यवस्था-सहज प्रमाण पूर्वक समग्र व्यवस्था में भागीदारी का स्वरूप और गति यही मानव परंपरा का स्वस्थ गति और