व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
देखा गया है। इसमें हर परिवार में इन विनिमय-कोष में भागीदारी करने का प्रसन्नता और उत्साह बना ही रहता है। यह सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी का एक आयाम होना सबको विदित रहता है। इसमें निष्ठा होना हर परिवार के लिये सहज है। हर ग्राम, मुहल्ला, सभा में गतिशील सभी समितियों में मानवीयता पूर्ण परिवार में, से स्वयं स्फूर्त सेवाएँ अर्पित होना स्वाभाविक है। क्योंकि हर परिवार मानव समृद्धि का अनुभव करता ही है। इस प्रकार विनिमय-कोष समिति में भागीदारी निर्वाह करने वाले या अन्य समिति में भागीदारी निर्वाह करने वाले परिवार मानव को प्रतिफल की आवश्यकता ही नहीं रहती। इसी के साथ-साथ यह भी बोध, अवधारणा और अनुभव सहज रहता है कि अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करना ही जागृत मानव सहज जागृति विधि से निष्ठा सतत् प्रभावशील रहता है। अतएव सार्वभौमता क्रम में भागीदारी नित्य उत्सव होना पाया जाता है। हर जागृत मानव में नित्य उत्सव सहज रूप में प्रमाणित होता ही है।
यह तथ्य पहले स्पष्ट हो चुका है कि स्वायत्त मानव शिक्षा-संस्कार पूर्वक विधिवत् दीक्षित होना, सर्वसुलभ होना यह जागृत मानव परंपरा का देन के रूप में विदित हो चुकी है। यही प्रधान रूप में शिक्षा-संस्कार पूर्वक सार्वभौमता को प्रमाणित करता है। यही स्वायत्तता को प्रमाणित करता है। इसी के साथ-साथ यह भी सर्वेक्षित तथ्य है कि हर मानव संतान में स्वायत्तता की आवश्यकता शैशव अवस्था से ही प्रकाशित रहता है क्योंकि हर मानव संतान न्याय का अपेक्षा रखता ही है, सही कार्य-व्यवहार करना चाहता ही है और सत्यवक्ता होने में निष्ठा प्रदर्शित करता ही है। यही