व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
संग्रह देखने को नहीं मिलता है क्योंकि अस्तित्व में संग्रह का साक्ष्य नहीं है। अस्तित्व में पूरकता का गवाही है, त्व सहित व्यवस्था का गवाही है। अस्तित्व में जीवन जागृति साक्ष्य है। इन्हीं तथ्यों के आधार पर विनिमय-कोष में लाभ की आवश्यकता नहीं रह जाती है क्योंकि सार्वभौम व्यवस्था और अखण्ड समाज के सूत्र में, से, के लिये और इसे नित्य सफलीभूत बनाने का प्रणाली-पद्धति-नीति में, से के लिये मानव सहज विज्ञान और विवेक सम्मत विचारों के रूप में कार्यरत रहना देखा गया है। इसी क्रम में जीवन जागृति पूर्वक यह अभीष्ट समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व के रूप में प्रमाणित हो जाता है। यह अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी का ही महिमा है। अन्य किसी विधि में मानव सहज अभीप्सा रूपी समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व सर्वसुलभ होता ही नहीं। अखण्ड समाज विधि से अर्थात् मानव जाति धर्म, दीक्षा, स्वायत्तता में समानता के आधार पर ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सूत्रित होना देखा गया है। इसलिये सार्वभौम अपेक्षा, सर्वमानव से अपेक्षित अपेक्षा सबको मिलना ही स्वाभाविक है। इसलिये हम स्वाभाविक रूप में मानव सहज दिशा को जागृति के रूप में जीवन सहज आवश्यकताओं को सुख, शांति, संतोष, आनन्द के रूप में, मानव सहज लक्ष्य को आवश्यकताओं को समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व के रूप में पाने की सम्पूर्ण विधि स्वयं अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था ही होना पाया जाता है। अतएव विनिमय-कोष में आवर्तनशील विधि प्रमाणित होने के आधार पर विधि, नीति और प्रक्रिया में सामरस्यता हो जाता है। हर परिवार समृद्धि का अनुभव करता है इसलिये आवर्तनशीलता में समान गति प्रदान करने के लिये समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व उद्देश्य होना