व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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वंशानुषंगीय पहचान-निर्वाह करना स्पष्ट है। ज्ञानावस्था में मानव संस्कारानुषंगीय (जानने, मानने के आधार पर) सहअस्तित्व रूप में परिवार व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में पहचान-निर्वाह दृष्टव्य है। यह जागृति सहज रूप में स्पष्ट है। इसी क्रम में मानव संस्कारानुषंगीय व्यवस्था, बहुमुखी अभिव्यक्ति और संप्रेषणशील होने के आधार पर प्रधानतः पाँचों आयामों में मानव में, से, के लिये मूल्यांकन एक आवश्यकता के रूप में समीचीन रहता है। इसी क्रम में एक आयाम उत्पादन-कार्य है।

हर उत्पादन मानव में निहित, मानव सहज निपुणता, कुशलता, पांडित्य सहित सहज मानसिकता पूर्वक शरीर के द्वारा प्राकृतिक ऐश्वर्य पर श्रम नियोजन करने के फलस्वरूप वस्तुओं में उपयोगिता और कला मूल्य स्थापित होता है। यही उत्पादन का अथ-इति है। ऐसे उत्पादित वस्तुओं का विनिमय इसलिये आवश्यक हुई कि हर परिवार में निश्चित कुछ वस्तुओं का उत्पादन करना समीचीन, संभव और क्रियान्वित रहता है। जबकि हर परिवार को जो उत्पादन सहज सम्पन्न रहते हैं उन वस्तुओं से भिन्न अन्य वस्तुओं की आवश्यकता बनी रहती है। इसलिये विनिमय प्रणाली है।

हर वस्तु उपयोगिता के आधार पर मूल्यांकित होता है। सभी उपयोगिताएँ महत्वाकांक्षा-सामान्याकांक्षा के रूप में परिगणित होते हैं। इन सभी मूल्यांकन की सफलता समृद्धि के अर्थ में होना ही लक्ष्य है। यह हर परिवार मानव का स्वीकृत लक्ष्य है। समाधानपूर्वक ही समृद्धि का प्रमाण होना पाया जाता है। समाधान सदा-सदा तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग इसके फलन में सुरक्षा ही है। इस प्रकार सदुपयोग सुरक्षा के बिन्दुओं के आधार पर ही तृप्ति बिन्दु और उभय तृप्ति