व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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न्याय-सुरक्षा समिति किसी भी स्थिति में मूल्यांकन करने में समर्थ रहता है। हर स्थितियों में संबंध, मूल्य, मूल्यांकन ही प्रमुख बिन्दु बना रहता है। जागृत मानव; संबंधों की अवधारणा से परिपूर्ण रहता ही है। मूल्यों का अनुभव हर जागृत मानव में वर्तमान रहता ही है। इसी आधार पर मूल्यांकन सुलभ हो जाता है। फलस्वरूप समीचीन उभय पक्ष में तृप्ति का होना देखा जाता है।

न्याय-सुरक्षा का स्वरूप, कार्य और फलन परस्पर तृप्ति ही है। यह तृप्ति परस्परता में विश्वास के रूप में ही पहचाना जाता है। विश्वास अपने में जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित हो जाता है। इस विधि से न्याय-सुरक्षा जागृत परंपरा सहज लोक-मानस का स्वरूप होना पाया जाता है। अतएव न्याय-सुरक्षा पूरे गाँव का, नगरवासी, धरती में निवासियों का जागृत मानसिकता का ही गति और स्थिति है। गति में संबंध, मूल्य, अर्पण, समर्पण, मूल्यांकन और उभय तृप्ति ही है। उभयतृप्ति निरंतर सहअस्तित्व का प्रमाण है। सहअस्तित्व के रूप में ही न्याय अपने में नित्य ध्रुव है। दूसरे ओर तृप्ति ही नित्य ध्रुव है। इसी बीच में सम्पूर्ण क्रियाकलाप जागृत मानव परंपरा में मूल्यांकित हो जाता है। इस विधि से न्याय-सुरक्षा मानव परंपरा में सहज व्यवहारिक अनिवार्यतम प्रक्रिया प्रणाली के रूप में स्पष्ट है।

उत्पादन-कार्य का मूल्यांकन :- पहले इन तथ्यों को स्पष्ट किया जा चुका है कि हर स्तरीय परिवार में आवश्यकता से अधिक उत्पादन एक अनिवार्य स्थिति है, सहज स्थिति है, आवश्यकीय स्थिति है। क्योंकि आवश्यकता से अधिक उत्पादन विधि से ही शरीर पोषण, संरक्षण, समाज गति सम्पन्न हो पाता है। और इसके मूल में जीवन जागृति पूर्वक