व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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ही समाज गति सार्थक होता है। सार्थकता का स्वरूप सहअस्तित्व और तृप्ति है। सहअस्तित्व में सदा-सदा उभयतृप्ति होना देखा गया है। यह भी विश्लेषण पूर्वक स्पष्ट किया जा चुका है। इस आधार पर शरीर पोषण, संरक्षण और समाज गति में तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग-सुरक्षा विधि से ही सम्भावित होना देखा गया। उत्पादित वस्तु ही धन है। मन का तात्पर्य जीवन शक्तियों से व निपुणता, कुशलता, पांडित्यपूर्ण मानसिकता से है। मन और तन समेत ही मानव हर कार्य-व्यवहार करता है। जागृतिपूर्वक किये जाने वाले हर कार्य का फलन उत्पादित वस्तुओं के रूप में प्रधान रूप में मिलता है। यही वस्तुएँ धन के रूप में गण्य होना पाया जाता है। इस प्रकार तन, मन, धन के संयुक्त रूप में ही उपयोग, सदुपयोग व प्रयोजनों को पहचाना जाता है। उपयोगिता के आधार पर उत्पादित वस्तु का मूल्यांकन होता है। सदुपयोगिता विधि से ही सहअस्तित्व और उभय तृप्ति रूपी प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। इससे यह भी स्पष्ट है कि जागृति सहज सम्पूर्ण तृप्ति बिन्दुएँ संतुलन सहज है न कि सापेक्ष।

संतुलन का सहज रूप व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी ही है। इसके मूल में परस्पर पहचान और निर्वाह स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह अस्तित्व सहज सहअस्तित्व की ही महिमा है। यही परस्परता, पहचान और निर्वाह का सूत्र है। इसकी व्याख्या हर अवस्था में हर इकाई करती ही रहती है। इसका नित्य प्रमाण सत्ता में संपृक्त प्रकृति सहज पहचान-निर्वाह, परमाणु अंशों के परस्परता में पहचान-निर्वाह, परस्पर परमाणुओं में पहचान-निर्वाह, परस्पर अणुओं में पहचान और निर्वाह, परस्पर रचनाओं में पहचान-निर्वाह, प्राणावस्था में बीजानुषंगीय विधि से पहचान-निर्वाह, जीव संसार में