व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
होने के आशयों को व्यक्त करने के रूप में उत्सव अपने आप में शुभ, सुन्दर, समाधानपूर्ण होना देखा जाता है।
5. विवाह संस्कारोत्सव :- संबंधों को पहचानना ही संस्कार है। ऐसे संबंध अस्तित्व संबंध, मानव संबंध और नैसर्गिक संबंध के रूप में जानना और पहचानना जागृत मानव में स्वाभाविक क्रिया है। अस्तित्व संबंध सहअस्तित्व के रूप में, नैसर्गिक संबंध जल, वायु, वन, धरती के रूप में, मानव संबंध अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के अर्थ में संबंधों को पहचानना एक आवश्यकता है। हर जागृत मानव में यह सार्थक होता है। मानव संबंध क्रम में पति-पत्नी संबंध एक संबंध है। ऐसे संबंध के स्वरूप कार्य के बारे में पहले ही सभी संबंधों के साथ आवश्यकता, लक्ष्य, उपयोगिता के संबंध में विश्लेषण और विवेचना कर चुके हैं।
यहाँ उत्सव के संबंध में स्वरूप प्रक्रिया को प्रस्तुत करना आवश्यक समझा गया है। विवाह संबंध में बंधु-बांधव, अभिभावक, मित्र, सुहृदय मनीषियों की सम्मति, प्रसन्नता, उत्साह के साथ निश्चयन होना इस संबंध संस्कारोत्सव की पूर्व भूमि है। उभय पक्ष के अभिभावक उत्सवित रहना सहज है। ऐसे पृष्ठभूमि के साथ विवाहोत्सव सम्पन्न होना मानव परंपरा में एक आवश्यकता है। क्योंकि संयत जीवन प्रणाली के लिये संबंधों का पहचान उसके निर्वाह के साथ उत्सवित रहना संस्कार का ही द्योतक है। संस्कार का परिभाषा भी यही ध्वनित करता है कि पूर्णता के अर्थ में सम्पूर्ण कृत, कारित, अनुमोदित, कायिक, वाचिक, मानसिक विधियों से सदा-सदा निर्वाह करने की स्वीकृति। यही संबंध की पहचान का तात्पर्य है। ऐसा संबंध निर्वाह सदा-सदा के लिये सुखद, सुन्दर, समाधानपूर्ण होना पाया जाता है। यही नित्य उत्सव