व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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ही मानव मन में कल्पित हो पाता है। इस अपव्ययता क्रम में स्वाभाविक सार्थक नियति सहज विधि से रचित शरीर रचना के अंगभूत गर्भाशय की आवश्यकता, विशेषकर मानव शरीर में गर्भाशय की आवश्यकता एवं तत्संबंधी उत्सव से मानव वंचित होना भावी हो जाता है। इससे यह पता लगता है कि इस मुद्दे पर कृत्रिम उपायों की निरर्थकता का हर सामान्य मानव स्वीकार कर सकता है। अतएव प्रकृति सहज स्त्री-पुरूष शरीर रचना उसका सम्पूर्ण अंग-अवयवों का उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनीयता क्रम में शरीर स्वस्थता और जीवन स्वस्थता रूपी संयमता के संयोगपूर्वक ही विधिविहित कार्यकलापों में प्रवृत्त होना पाया जाता है। यह जीवन जागृति पूर्वक ही सफल होना देखा गया है। ऐसा जीवन जागृति मानवीयता पूर्ण शिक्षा-संस्कार परंपरा पूर्वक सर्व सुलभ होने के तथ्य स्पष्ट हो चुका है।

संतान जन्मोत्सव के अवसर पर जागृत मानव परंपरा सहज जीवन जागृति की कामना, शरीर स्वस्थता की कामना इसके पुष्टि पोषण विधाओं का चर्चा-संवाद, गीत, गायन, नृत्य आदि कृत्यों से उत्सव समारोह को सफल बनाना इन्हीं कृत्यों से हर माता-पिता में संतान प्राप्ति के महत्वपूर्ण घटना के आधार पर सम्मान और गौरव का उमंग की पुष्टि बन्धुजन, बहुजन द्वारा सम्पन्न होता है। यही जन्म संस्कार उत्सव का तात्पर्य है। इससे स्पष्ट हो गया कि शैशवता की स्थिति में अभिभावक और बन्धुजनों का कामना ही भावी किशोर, यौवन, प्रौढ़ अवस्थाओं में प्रमाणित होने का सम्पूर्णता ही कामनाओं के रूप में सामूहिक प्रस्तुति, स्वीकृति सहित प्रसन्नता और उत्साह का संयुक्त रूप में व्यक्त करना ही सार्थक उत्सव का स्वरूप है।