व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
और निश्चयन कर सकेगा। मैं प्रमाणिक हूँ हर व्यक्ति इस धरती पर प्रमाणिक होगा और प्रमाणिक हो सकता है। इस विधि से मानसिकता, विचार और समझदारी संपन्न होना है। ऐसा जीना ही मानव का परिभाषा मानवीयतापूर्ण आचरण सार्वभौम व्यवस्था व अखण्ड समाज और समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व का नित्य वैभव है। यही जागृत मानव समाज का स्वरूप कार्य-विचार और नजरिया है।
मानव ही दृष्टापद प्रतिष्ठा के प्रमाणों को प्रमाणित करने योग्य इकाई है। क्योंकि मानव में ही न्याय, धर्म, सत्य दृष्टि प्रमाणित होना पाया जाता है। दृष्टियाँ प्रिय, हित, लाभ रूप में भी भ्रान्तिपूर्वक कार्यशील होता है। भ्रमित होने का मूल कारण शरीर को जीवन समझना ही है। इसी भ्रमवश मानव को व्यक्ति और समुदाय के रूप में विचारों का फैलना देखा गया है। व्यक्तिवाद अहमता का द्योतक है। यही समुदाय विधा में युद्ध, द्रोह, विद्रोह, शोषण मानसिकता है। मानव संचेतनावादी मानसिकता में न्याय, धर्म, सत्य ही विचारों का आधार हो पाता है। इसीलिये समाधान, समृद्धि, वर्तमान में विश्वास (अभय) और सहअस्तित्व में प्रामाणिकता के रूप में हर जागृत व्यक्ति स्वयंस्फूर्त विधि से संपन्न होता है। इससे पता लगता है हर मानव बहुआयामी होने के कारण जागृति पूर्वक ही सभी आयाम, कोणों में मानवत्व को प्रमाणित करना बना रहना यही समाज और समाजशास्त्र का प्रधान आशय है।
समाजशास्त्र मानव सहज मानवीयतापूर्ण विचारों का अध्ययन है, हर देशकाल स्थितियों में मानव का आचरण विचारों से अनुबंधित रहता ही है अथवा विचारों से जुड़ा ही रहता है। जागृति पूर्ण विचार सहित जितने भी आयाम, कोण,