व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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4. मानव बहुआयामी अभिव्यक्ति है। मानव सहज परंपरा में अनुसंधान, अस्तित्व मूलक मानवीयतापूर्ण अध्ययन, शिक्षा व संस्कार, आचरण व व्यवहार, व्यवस्था, संस्कृति-सभ्यता और संविधान ही सहज प्रमाण है। यही मौलिक विधान है।

उक्त चारों मौलिक अधिकार सूत्र में इंगित किया गया आशय तथ्य और प्रयोजन एक पाँचवे सूत्र के व्याप्ति में ही स्पष्ट हो चुका है। मौलिक अधिकार का प्रयोग जागृत मानव ही उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशील बना पाता है; अतएव मानव अपने अखण्डता, सार्वभौमता और अक्षुण्णता को बनाये रखने का दायित्व और कर्तव्य मानव में ही मानव में, से, के लिये सन्निहित है। इन सबका अथवा सभी प्रकार की सफलता जीवन जागृति ही है और जागृति पूर्णता ही है। जागृति और जागृति पूर्णता के अनन्तर ही मानव अपने अखण्डता, सार्वभौमता, अक्षुण्णता को सहज ही पहचानता है। फलतः निर्वाह करना स्वाभाविक हो जाता है। मानव में ही जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने का वैभव प्रमाणित होता है। यह जागृति व जागृति पूर्णता का ही द्योतक है। संपूर्ण आयाम, कोण, दिशा, परिप्रेक्ष्यों में जानने, मानने का प्रमाणों में दायित्व पहचानने, मानने, निर्वाह करने का वैभव प्रमाणित होता है। यह जागृति पूर्णता का ही द्योतक है। संपूर्ण आयाम, कोण, दिशा, परिप्रेक्ष्यों में जानने, मानने का प्रमाणों में दायित्व पहचानने और निर्वाह करने के रूप में कर्त्तव्य करते हुए स्वयं स्फूर्त होता है। कर्तव्य से समृद्धि, दायित्व से समाधान निष्पन्न एवं प्रमाणित होता है। जानने, मानने के फलन में नियम और न्याय का संतुलन होना पाया जाता है। फलस्वरूप नित्य समाधान होता है। समाधान व्यवस्था का सूत्र है। इसका व्याख्या उक्त सभी मौलिक अधिकारों में व्याख्यायित हुई है। समस्या पूर्वक कोई मौलिक