व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
कर्मस्वतंत्रता का परिभाषा भी इसी अर्थ को प्रतिपादित करता है। स्वयंस्फूर्त विधि से सूत्रित होकर संपूर्ण आयाम, कोणों में प्रमाणों को दिशा परिप्रेक्ष्यों में हर देशकाल में प्रमाणित होना, करना, कराना, करने के लिये सहमति देना स्वतंत्रता की संपूर्णता है यही जागृति पूर्णता भी है।
संपूर्ण बंधन भ्रमवश आशा, विचार, इच्छा के रूप में गण्य होते हैं। ये आशा, विचार, इच्छा रूपी बंधनमुक्ति क्रियापूर्णता स्थिति में होती है। जागृति ही इसका सूत्र है। नियम और न्याय, समाधान, सत्य में जागृत होना ही व्यवस्था में जीने का सूत्र है। बंधन मुक्ति व्यवस्था में जीना ही है। व्यवस्था स्वयं समाधान और उसकी निरंतरता है, यही मानव धर्म है। मानव धर्म ही मानव का त्व सहित व्यवस्था अथवा मानवत्व सहित व्यवस्था होना देखा गया है। जीवन सहज रूप में सर्वमानव में सहज रूप में इसकी अपेक्षा बनी हुई है।
1. “जागृति मानव का वर है।” मानव सहज कर्मस्वतंत्रता का तृप्ति बिन्दु स्वानुशासन है। यह परम जागृति के रूप में प्रमाणित होता है। यह मानव परंपरा में मौलिक विधान है।
2. “सार्वभौम व्यवस्था व अखण्ड समाज, मानव सहज वैभव है।” मानव सहज कल्पनाशीलता का तृप्ति बिन्दु, परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था में भागीदारी के रूप में प्रमाणित होता है। यह मौलिक विधान है।
3. “मानवीय लक्ष्य परम जागृति के रूप में सार्वभौम है।” मानवीयतापूर्ण अभिव्यक्ति, प्रकाशन सहज संप्रेषणाएँ, संपूर्ण आयाम, कोण, दिशा, परिप्रेक्ष्यों में समाधान, समृद्धि, अभय व सहअस्तित्व रूपी वैभव को प्रमाणित करता है। यही मौलिक विधान है।