व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
हर सभा भाई-बहन या मित्र परिवार के रूप में ही प्रतिष्ठित रहना भी एक आवश्यकता है। इसका मूल कारण भाई-बहन व मित्र संबंध में ही संपूर्ण सार्वभौमता सहज परस्परता में प्रमाणित होते हैं। इसीलिये सभा में निर्वाचित सदस्यों को संबोधन के रूप में भाई-बहन या मित्र संबोधन करना आवश्यक है। सभा का परिपूर्ण रूप अर्थात् व्यवस्था का परिपूर्ण रूप कम से कम सौ से डेढ़ सौ परिवार के बीच साकार होना समीचीन है, निर्वाचन क्रियाकलाप हर दस व्यक्ति के बीच में होना सहज है। एक परिवार (छोटे से छोटा) दस व्यक्ति का होना भी आवश्यक है, संभव है और उचित है। ऐसे दस व्यक्तियों में से एक व्यक्ति को सभा प्रधान के रूप में स्वीकारा जाता है, पहचाना जाता है, यही परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था का तात्पर्य है। पुनश्च दस परिवार में से निर्वाचित एक-एक व्यक्ति दस व्यक्ति के रूप में होते हैं ये एक परिवार समूह सभा को गठित करते हैं। ऐसे दस परिवार समूह सभा एक व्यक्ति को सभा प्रधान के रूप में निर्वाचित कर ग्राम अथवा मोहल्ला परिवार सभा के लिये निर्वाचित किया जाता है। इस क्रम में निर्वाचित दस सदस्य एक ग्राम सभा अथवा मोहल्ला सभा के रूप में कार्य करना सहज है। ऐसे निर्वाचन पूर्वक से प्राप्त दस सदस्यीय सभा में से एक व्यक्ति को प्रधान के रूप में पहचाना जाता है और संबोधन के लिये परस्परता में सभी मित्र अथवा भाई-बहन संबोधन से आप्लावित रहने का कार्यक्रम बनाया जाता है। यही ग्राम स्वायत्त अथवा मोहल्ला सभा का तात्पर्य है। ये पाँचों आयामों के प्रति जागृत रहते हैं। सभी आयामों में अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के अर्थ में सूत्रित रहते हैं। इसमें हर परिवार मानव भागीदारी निर्वाह करने के लिये स्वतंत्र है। यही कर्मस्वतंत्रता का तत्व बिन्दु भी है।