व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

Back to Books
Page 210

ऐसी प्रतिष्ठा सर्वमानव की अपेक्षा है इसका भी सर्वेक्षण होना सहज है। निपुणता का तात्पर्य प्राकृतिक ऐश्वर्य पर उपयोगिता मूल्य को स्थापित करने का सामर्थ्य और उसका क्रियान्वयन और मूल्यांकन से है। कुशलता का तात्पर्य प्राकृतिक ऐश्वर्य पर उपयोगिता मूल्य और कला मूल्य को स्थापित करने और उसका मूल्यांकन करने के प्रमाणों से है। इस विधि से सर्वाधिक सामान्यकांक्षा संबंधी विशेषकर संपूर्ण उत्पादन का कार्य स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। मूल्यांकन कार्य में ये देखा गया है कि -

स्वायत्त मानव बनाम निपुणता, कुशलता, पांडित्य संपन्न मानव + प्राकृतिक ऐश्वर्य बनाम नैसर्गिकता + हस्तलाघव + मानसिकता का संयुक्त रूप में संपूर्ण उत्पादन मानव में, से, के लिये होना देखा गया है। हस्तलाघव का तात्पर्य सभी (पाँचो) ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय से निपुणता, कुशलता, पांडित्य रूपी कार्य करने से है। ज्ञानेन्द्रिय का तात्पर्य शब्दों को सार्थक निरर्थक रूप में विभाजित करने की क्रिया, सुनने; स्पर्श से कठोरता और मृदुलता को स्वीकारने की क्रिया; घ्राणेन्द्रियों से सुगन्ध और दुर्गन्ध को विभाजित करने की क्रिया; रूपेन्द्रियों से सुरूप, कुरूप की विभाजन क्रिया; रसेन्द्रियों से खट्टा, मीठा, चरचरा, खारा, कसैला और तीखा इन रूचियों को विभाजित करने की क्रिया। कर्मेन्द्रियों का तात्पर्य हाथ, पैर, मल-मूत्र द्वार और मुँह ये सब कर्मेन्द्रियों में गण्य होना पाया जाता है। हस्तलाघव क्रिया में निपुणता, कुशलता पूर्ण पांडित्य से संचालित पूरे शरीर के संपूर्ण अंग-अवयव सहित हाथ-पैर सटीक काम करने से बाकी सभी ज्ञानेन्द्रियों का संयोग कर्मेन्द्रियों के साथ संयोजित रहता ही है। इस विधि से हर व्यक्ति से श्रम प्राकृतिक ऐश्वर्य पर स्थापित होना देखा जाता है। इसमें यह भी देखा गया है - उत्पादन में