व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
अध्याय - 7
मानव में संचेतना
संचेतना और उसका वैभव मानव में ही देखने को मिलता है। संचेतना संज्ञानीयता सहित संवेदना अपने में चौमुखी विधि से कार्यरत रहना पाया जाता है। यह जीवन जागृति का ही परिचायक है। जागृत मानव में जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना सदा-सदा कार्यरत रहना पाया जाता है। यह मूलत: समझने योग्य क्षमता, सम्पन्नता की ही जागृति है। हर मानव में जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने की गवाही स्पष्ट होता है या स्पष्ट करना चाहते हैं अथवा स्पष्ट होने के लिए बाध्य रहते ही हैं। बाध्य रहने का तात्पर्य स्वीकृत रहने से है। क्योंकि जागृति हर मानव में स्वीकृत होता है। यह जीवन सहज अभीप्सा और प्रयास है। इसका गवाही मानव परंपरा ही है। मानव परंपरा सदा-सदा से ही जागृति का पक्षधर रहा है। जागृति का ध्रुवीकरण अपेक्षित रहा है। ध्रुवीकरण का तात्पर्य निश्चयता और स्थिरता के रूप में प्रमाणित होने से है। यह जागृत मानव परंपरा सहज रूप में प्रमाणित होना ही व्यवहारवादी समाजशास्त्र की अपेक्षा और महिमा है। ऐसे ध्रुवीकरण स्वरूप को मानव में जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने और उसकी आवर्तनशीलता में होना देखा गया है। यही निश्चयता और यही परंपरा में गतिशील होना स्थिरता का तात्पर्य है। स्थिरता का तात्पर्य भी है निरंतरता-अक्षुण्णता। इसका मूल तत्व आवर्तनशीलता ही है। क्योंकि यह देखा गया कि पहचानने, निर्वाह करने के अनन्तर पुन: जानने, मानने और जानने, मानने के अनन्तर पहचानने, निर्वाह करने के रूप में आवर्तनशीलता को देखा