व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
तीन वर्ष के शिशुओं के अध्ययन से एवं अधिक से अधिक पाँच वर्ष के शिशुओं के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। इसे हर मानव निरीक्षण, परीक्षण पूर्वक अध्ययन कर सकता है। यही मुख्य बिन्दु है। इस आशयों को अर्थात् शिशुकाल में से मुखरित इन आशयों का आपूर्तिकरण ही जागृत मानव परंपरा का वैभव है।
जीवन ज्ञान, सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान और मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान केन्द्रित मानवीयतापूर्ण शिक्षा प्रणाली, पद्धति, नीतिपूर्वक किये गये अध्ययन-अध्यापन कार्य विधि से शिशुकालीन तीनों अपेक्षाओं का भरपाई होता है। जीवन ज्ञान सम्पन्नता से हर मानव में दृष्टा पद प्रतिष्ठा में, से, के लिये वर्तमान में विश्वास होता है। फलतः न्यायप्रदायी क्षमता प्रमाणित हो जाती है। अस्तित्व दर्शन की महिमावश सहअस्तित्व, सहअस्तित्व में व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी उसकी आवश्यकता और प्रयोजन बोध होता है जिससे सही कार्य-व्यवहार करने का अर्हता स्थापित होता है।
अस्तित्व ही परमसत्य होने का बोध जीवन सहित अस्तित्व दर्शन के फलस्वरूप परम सत्य बोध होना स्वाभाविक है। इसलिये सत्य बोध सहित सत्य वक्ता का तृप्ति पाना सहज समीचीन है। यही मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार की सारभूत उपलब्धि, जागृति और समीचीनता सहज है। अतएव मानव परंपरा स्वयं जागृत होने की आवश्यकता अनिवार्यता स्पष्ट है।
परंपरा जागृति का तात्पर्य शिक्षा-संस्कार पंरपरा का मानवीयकरण फलतः परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था सर्वसुलभ होने का कार्यक्रम ही अखण्ड समाज का कार्यक्रम है। यही जागृत पंरपरा का स्वरूप है। यह हर नर-नारियों में