व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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उनके सम्पूर्णता को समझना सहज है। हर वस्तु अपने सम्पूर्णता में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का वैभव है। ऐसे सम्पूर्णता का महिमा ही है प्रत्येक अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदार है।

सम्पूर्ण व्यवस्था परस्परता में ही वर्तमान और वैभव है। जैसे पदार्थावस्था अपने में सम्पूर्ण और व्यवस्था है, इनमें अनेक अंतर-प्रजातियाँ भी है। वह भी अपने-अपने स्वरूप में सम्पूर्ण और व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करते हैं। ऐसे भौतिक पदार्थ ही अपने में समृद्ध होने के साक्ष्य में रासायनिक प्रवृत्तियों में दिखाई पड़ते हैं अर्थात् रासायनिक द्रव्यों के रूप में उदात्तीकृत होते हैं। फलस्वरूप प्राणावस्था की सम्पूर्ण रचनाएँ बीजानुषंगीय विधि से परंपरा के रूप में स्थापित हो जाते हैं। यह हर मानव को विदित है। पदार्थावस्था अपने विविधता को परिणाम के आधार पर तात्विक द्रव्यों के रूप में दिखाई पड़ते हैं। तीसरे स्थिति में जीवावस्था का शरीर रचना भी प्राणकोषाओं में ही रचित-विरचित होते हैं। ऐसे रचनाक्रम वंशानुषंगीय विधि से वैभवित रहना दिखाई पड़ता है। जीवावस्था में समृद्ध मेधस युक्त शरीरों को जीवन संचालित करता है। समृद्ध मेधस पर्यन्त जितने भी रचनाएँ हैं वे सब स्वदेजों में गण्य हो जाते हैं। ये सब विरचित होकर हर सप्राणकोषा, निष्प्राण कोषा में परिवर्तित होकर बीज रूप में स्थित रहते हैं और यही निष्प्राण कोषा बीज, ऋतु-संयोग प्रणाली से सप्राणित हो जाते हैं। इस प्रकार स्वदेज संसार रचनाओं में हर प्राणकोषा ही निष्प्राण कोषा के रूप में बीज रूप में रह जाते हैं। यही रचनाएँ अण्डज में परिवर्तित होकर पिण्डज रचना तक रचना क्रम को विकसित करते हैं। इसी में सम्पूर्ण सप्त धातुओं का नियोजन संयोजन अनुपाती विधि से समाहित रहना पाया