व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
क्रम विधि से प्रमाणित है। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि जागृति का धारक-वाहकता प्रत्येक मानव का जागृति सहज स्वत्व है; और सहअस्तित्व सहज वैभव है। इस प्रकार अस्तित्व सहज व्यवस्था को जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना ज्ञानावस्था सहज जागृत मानव से ही प्रमाणित होती है। जागृति सहज विधि से ही समाज रचना स्वाभाविक होता है अथवा होने वाला स्वरूप है। होना वर्तमान ही है। वर्तमान की निरंतरता है। इसलिये व्यवस्था एवं समाज की निरंतरता है। सभा क्रम में निर्वाचन विधि से सम्पन्न होता है। परिवार रचना अर्थात् अखण्ड समाज रचना विधि संबंधों की पहचान विधि से सम्पन्न हो जाता है। यथा एक परिवार में दस स्वायत्त मानवों के सहभागिता को पहचाना जाता है। जो परस्परता में संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति पूर्वक रहते हैं, परिवारगत उत्पादन कार्य में परस्पर पूरक होते हैं यह सर्ववांछित स्वरूप स्वायत्त मानव जागृत सहज वैभव के रूप में पाया जाता है। सहअस्तित्व सहज प्रमाण के रूप में एक से अधिक व्यक्तियों का होना भी प्रमाणित होता है। इसीलिये दस व्यक्तियों का होना संख्या के रूप में बतायी जाती है, घटना के रूप में यह संख्या ज्यादा कम हो सकता है। क्योंकि मानव संख्या के अर्थ में सीमित नहीं है किंवा कोई भी वस्तु संख्या के रूप में सीमित नहीं है क्योंकि हरेक एक रूप, गुण, स्वभाव, धर्म सहज वैभव है, अविभाज्य है। गणित केवल रूप सीमावर्ती गणना है। आंशिक रूप में गुण (गति) का भी गणना सम्पन्न होता है। धर्म, स्वभाव और मध्यस्थ गुण (गति) का गणना संभव ही नहीं है। अतएव गणित विधि के साथ गुण और कारण विधि से मानव अपने भाषा को इनके अविभाज्य विधि से समृद्ध बनाने की आवश्यकता है। इन तीनों विधि से ही हर वस्तु को, उन