व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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★ प्रत्येक इकाई परस्परता से प्रभावित है, चाहे वह प्रभाव स्थूल हो अथवा सूक्ष्म हो । चूंकि यहाँ मानव इकाई के पोषण एवं शोषण का विश्लेषण है, अत: हमेें व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र तथा अंतर्राष्ट्रीय भेद से विश्लेषण करना होगा । अंतर्राष्ट्रीय मानव समुदाय एक है तथा सब की साम्य कामना ‘सुख’ ही है । निरंतर सुख की उपलब्धि ही मानव का चरम विकास है तथा सुख की स्थिति में ही मानव अपनेे को वातावरण के दबाव से मुक्त अनुभव करता है । सुखी मानव अन्य का पोषण करने में भी समर्थ होता है ।

श्र सुख एक बौद्धिक स्थिति है । ‘जीवन’ बल व शक्तियों की संगीतमयता व एकसूत्रता ही सुख है । सर्वमानव समाधान पूर्वक सुखी होता है ।

श्र मानव ने बौद्धिक समाधान तथा भौतिक समृद्धि से सुख की कामना की है ।

ज्ञ यह उल्लेखनीय है कि ‘जीवन परमाणु’ सर्वोच्च विकसित पद है ।

श्र बौद्धिक समाधान के मार्ग में सब से बड़ा अवरोधक तत्व भय है । मानव कुल तीन प्रकार के भय से पीड़ित हुआ है ः-

(1) प्राकृतिक भय,

(2) पाशविक भय तथा

(3) मानव में निहित अमानवीयता का भय ।

★ मानव का मानव से भय परधन, परनारी/परपुरुष तथा परपीड़ात्मक व्यवहार के कारण है । यही मानव में निहित अमानवीयता का भय है । परधन, परनारी/परपुरुष एवं परपीड़ात्मक व्यवहार से द्वेष, आतंक, हिंसा एवं प्रतिहिंसा उत्पन्न होती है ।

श्र उपरोक्त तीनों से कुल चार प्रकार से मानव भयभीत है :-

(1) पद भय (2) मान भय (3) धन भय (4) मृत्यु भय ।

श्र भौतिक समृद्धि के लिए मानव के पास केवल तीन ही अर्थ हैंं ः- (1) तन (2) मन (3) धन ।

श्र भ्रमित मानव ने तन, मन एवं धन के नियोजन से ही प्राप्त प्राकृतिक ऐश्वर्यों को उपयोग तथा भोग करते हुए प्राकृतिक भय, पाशविक भय तथा मानव में निहित अमानवीयता के भय से मुक्त होने की कामना की है ।

★ भय से निवारण हेतु समुदाय रुपी सामाजिक ता की कामना मानव ने किया । सामाजिकता का अर्थ ही है संबंध एवं संपर्क का निर्वाह । संबंध एवं संपर्क के निर्वाह के लिए आधारभूत प्रेरणा श्रोत चार हैंं :-

(1) सभ्यता, (2) संस्कृति, (3) व्यवस्था (4) विधि ।