व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र अवसरवादिता पर ही संयमता, नियंत्रण तथा सुधार का अधिकार जागृति पूर्वक प्रमाणित होता है ।
श्र प्रत्येक मानव जन्म से ही न्याय का याचक है । न्यायपूर्ण व्यवहार प्रस्तुत करने योग्य क्षमता, योग्यता एवं पात्रता को उत्पन्न करना ही, एक से अनेक मानव द्वारा किए जा रहे अनवरत प्रयास का मूल उद्देश्य है ।
श्र न्यायवादी मानवों की परस्परता में सहज स्वभाव ही ‘सामाजिकता’ है तथा यही मानवीयतापूर्ण समाज है ।
“सर्व शुभ हो”
अध्याय - सोलह
पोषण एवं शोषण
श्र कोई भी मानव स्वयं का शोषण नहीं चाहता है ।
श्र इकाई - अनुकूल इकाई = शोषण ।
इकाई + अनुकूल इकाई = पोषण ।
★ विकास और जागृति संपूर्ण सृष्टि का लक्ष्य है तथा सृष्टि में प्रत्येक जड़ इकाई की चेष्टा विकास क्रम व विकास के लिए ही है । सृष्टि में इकाई के स्वतंत्र अस्तित्व का दर्शन नहीं होता । प्रत्येक इकाई वातावरण के दबाव से क्षुब्ध होकर स्वतंत्र होने के प्रयास में है, साथ में वातावरण से प्रेरित रहता ही है । सृष्टि, जड़ एवं चैतन्य, दो स्वरूप में है । जड़ अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था समग्र व्यवस्था में भागीदारी रूप में है । जिसका दृष्टा मानव है । चैतन्य सृष्टि में मानव इकाई के जागृति पूर्वक स्वतंत्र (स्वायत्त) होने की व्यवस्था है । यहाँ स्वतंत्रता का अर्थ सब से अलग होने से नहें है, फिर स्वतंत्रता का क्या अर्थ है ? स्वतंत्रता का अर्थ है, अपने को वातावरण के दबाव से मुक्त कर लेना तथा सहअस्तित्व सहज व्यवस्था में संगीतमय रूप में प्रमाणित करना । मानव इकाई में इसकी पूर्ण संभावनाएँ हैं तथा जागृत मानव ने स्वतंत्रता की अनुभूति भी की है ।
ज्ञ इस अध्याय में शोषण एवं पोषण का अध्ययन मानव के संदर्भ में ही किया गया है । पोषण सहअस्तित्व के अर्थ में, इसके विपरीत शोषण है ।
च वातावरण के प्रताड़ना तथा क्षोभ से मुक्त होकर स्वतंत्र अस्तित्व की अनुभूति करना मानव जागृति की चरम परिणति है । विकास की दिशा में जो समस्त अवरोध है, वह ‘शोषक’ तथा सहायक समस्त तत्व ‘पोषक’ हैंं । अतएव, यह सिद्ध हुआ कि जागृति को अवरुद्ध करने वाली समस्त क्रियाएँ ‘शोषण’ हैं तथा जागृति को गतिशील करने वाली समस्त क्रियाएँ ‘पोषण’ हैं ।