व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र समस्त मानव की धारणा मात्र ‘विश्राम’ ही है । समस्त श्रम जो है, वह विश्राम के लिए ही है ।
श्र विश्राम योग्य अवधारणा मात्र न्याय पूर्ण व्यवहार से, धर्म पूर्ण विचार से तथा सत्य में अनुभूति सहित सम्भव होता है ।
श्र सत्य के आश्रय में धर्म तथा न्याय है ही ।
श्र न्यायाश्रित मानवीय इकाई (व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व) द्वारा संपादित समस्त क्रिया तथा व्यवहार मात्र सुकृत परिणाम, परिपाक फल हेतुक (कारण) ही है, जिससे ही समाधान एवं सहअस्तित्व सिद्ध होता है ।
श्र न्यायाश्रित व्यवहार सम्पन्न समाज में मानवीयता तथा अतिमानवीयता की प्रतिष्ठा स्पष्ट है ।
श्र उसके विपरीत अवसरवादी व्यवहार से भ्रम एवं अज्ञान से पीड़ित होता है जिससे अमानवीयता का प्रादुर्भाव होता है ।
श्र लघु मौलिकता से गुरु मौलिकता की ओर प्रगति की ‘सुकृत’ और गुरु मौलिकता से लघु मौलिकता की ओर गति को ‘विकृत’ परिणाम, परिपाक एवं फल की ‘हेतुक’ संज्ञा है ।
श्र मानवीय व्यवहार की दृष्टि, स्वभाव एवं विषय के आधार पर सामाजिकता का निम्नानुसार वर्गीकरण किया गया है :-
(1) मानवीयता,
(2) अतिमानवीयता,
(3) अमानवीयता ।
च मानवीयता की पोषक दृष्टि, गुण, स्वभाव व विषय वाली इकाई को ‘मानव’ की संज्ञा है । अतिमानवीयता की पोषक दृष्टि, गुण, स्वभाव व विषय वाली इकाई को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है - (1) देव मानव और (2) दिव्य मानव । अमानवीयता की पोषक दृष्टि, गुण, स्वभाव व विषय वाली इकाईयों को भी दो श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है - (1) पशु मानव और (2) राक्षस मानव ।
श्र मानव जागृत; अतिमानव पूर्ण जागृत तथा अमानव अजागृत इकाई है ।
श्र शोषण तथा पोषण भेद से ही मानव गुरु-मूल्यन व लघु-मूल्यन प्रक्रिया को संपन्न करता है, जो विकास तथा ह्रास के रूप में परिलक्षित होता है ।
श्र लघुत्व का गुरुत्व पर, संकीर्णत्व का व्यापकत्व पर, अल्पत्व का वृहदत्व पर, व्यष्टित्व का समष्टित्व पर, दुर्बल का सबल पर, अक्षम का सक्षम पर, अनाधिकारी का अधिकारी पर आक्रमण पूर्वक