व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र जागृत मानव एवं मनोवेग के बराबर में उपलब्धि मानवीय परंपरा है ।
★ श्रम, गति एवं परिणाम परस्पर निम्नानुसार परिलक्षित हैंं - गति एवं परिणाम के फलन में उपलब्धि श्रम है । श्रम एवं गति के फलन में उपलब्धि परिणाम है । परिणाम एवं श्रम के फलन में उपलब्धि गति है ।
★ पूर्व में वर्णन किया जा चुका है कि विकसित इकाई में अविकसित और समान इकाई को पहचानने व समझने की प्रवृत्ति है । उसी के तारतम्य में यह परिलक्षित होता है कि ज्ञानावस्था की एक सामान्य इकाई ने जीवावस्था की अनेकानेक इकाईयों का उपयोग, सदुपयोग व भ्रमवश दुरूपयोग भी किया है । इसी क्रम में जीवावस्था की एक सामान्य इकाई प्राणावस्था की अनेकानेक तथा प्राणावस्था की एक सामान्य इकाई पदार्थवस्था की अनेकानेक इकाईयों के लिए पूरक होते हैंं । जागृति के क्रम में प्राप्त क्षमता, योग्यता एवं पात्रता के आधार पर भी उक्त सिद्धांत ही परिलक्षित होता है ।
★ ज्ञानावस्था की एक निर्भ्रान्त इकाई अनेक भ्रान्ताभ्रान्त तथा भ्रान्त इकाईयों के लिए अनुसरण योग्य तथा समाधान की ओर प्रेरक सिद्ध हुई है ।
श्र पदार्थावस्था में अस्तित्व यथास्थिति में संतुलन क्रिया; प्राणावस्था में अस्तित्व एवं पुष्टि और यथास्थिति में संतुलन क्रिया; जीवावस्था में अस्तित्व, पुष्टि तथा जीने की आशा सहित उपभोग प्रवृत्ति और यथास्थिति में संतुलन क्रिया; ज्ञानावस्था में अस्तित्व, पुष्टि, जागृति पूर्वक जीने की आशा सहित समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को प्रमाणित करने के रूप में संतुलन क्रिया अध्ययन के लिए संपूर्ण वस्तु है ।
श्र जागृति के मूल में सिद्धांत यह है कि ‘मानव’ सही में एक है तथा संघर्ष के मूल में कारण मानव गलती में अनेक है ।
श्र यदि उपरोक्त सिद्धांत हृदयंगम हो जाये तो विश्व में सामाजिकता के लिए उपयुक्त वातावरण स्वयमेव उपस्थित हो जाये ।
श्र मानव को पूर्ण सुखी (निर्भ्रम) होने का प्रमाण ही बौद्धिक समाधान और भौतिक समृद्धि सहज प्रमाण है ।
श्र भौतिक समृद्धि ‘आवश्यकता से अधिक उत्पादन’ की नीति आचरित करने से ही सिद्ध होती है । पुन: सदुपयोगात्मक आचरण से ही जागृति प्रमाणित हुआ है अन्यथा ह्रास अवश्यम्भावी है ।
श्र बौद्धिक समाधान हेतु व्यवहारिक सुगमता, सामाजिकता और मानवीयता से संपन्न अध्ययन की व्यवस्था चाहिये ।
:: व्यवहारिक सुगमता = न्यायसम्मत नीति संपन्न आचरण ।