व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
★ बौद्धिकता में अनुभूति का अर्थ है सहअस्तित्व रूपी परम सत्य का अनुभव तथा इसके अध्ययन पक्ष को समाधान और इसमें व्यवधान पक्ष को समस्या की संज्ञा है ।
★ अनुभूति तथा समृद्धि दोनों क्रियाएं हैं । अनुभव क्रिया पूर्वक ‘जीवन’ विकसित चेतना स्वत्व रूप में है । जबकि समृद्धि के लिए कार्य क्रिया शरीर यात्रा पर्यन्त एक आवश्यकता है । शरीर यात्रा के समापन के साथ ही इसकी आवश्यकता भी समाप्त होती है । इसलिए यह सामयिक है । इस प्रकार अनुभव सहज निरंतरता सिद्ध हुई ।
श्र सफलता केवल निर्भ्रम अथवा निर्भ्रान्त अवस्था में ही है ।
श्र ज्ञानावस्था के संपूर्ण मानव ही निर्भ्रान्त अवस्था के निकटवर्ती हैं । जागृति का तात्पर्य सहअस्तित्व में अनुभूति सहज प्रमाण है । जागृत मानव के निकटवर्ती मानव जागृति क्रम में होना पाया जाता है । यही भ्रांत मानव है । यही पशु मानव व राक्षस मानव है । अत: यह सिद्ध होता है कि जागृति भ्रमहीनता अथवा निर्भ्रान्त स्थिति की उपलब्धि है ।
श्र जो जैसा है उसको वैसा जानना, मानना एवं पहचानना ही निर्भ्रान्त स्थिति की उपलब्धि है अथवा निर्भ्रमता की स्थिति है क्योंकि ‘है’ का अध्ययन है ।
★ जो जैसा है उसको वैसा जानने का तात्पर्य है शब्द द्वारा इकाई के रूप, गुण, स्वभाव व धर्म इंगित हो जाना । सत्ता में सम्पूर्ण एक-एक है, सत्य व्यापक में समाहित जड़-चैतन्य प्रकृति है । यही परम सत्य है अत: सत्यता का ही- वस्तुस्थिति के रूप में अध्ययन है और इसी की समझ और प्रमाण उपलब्धि है । उपलब्धि मात्र सहअस्तित्व मेें, से, के लिए होती है । सत्यता सहअस्तित्व स्वरूप है क्योंकि नित्य वर्तमान है ।
श्र सत्यता का अध्ययन पूर्ण हो जाना ही निर्भ्रमता है ।
श्र सत्यानुभूति के लिये भ्रम का निवारण परमावश्यक है, जो मानवीयता पूर्ण जीवन से ही चरितार्थ होता है ।
श्र निर्भ्रमता के लिए विवेक एवं विज्ञान का अध्ययन व कर्माभ्यास, व्यवहाराभ्यास आवश्यक है । इसके द्वारा किये गये अनुभव, विचार तथा व्यवहार के समन्वय से ही क्रमश: अध्यात्मिक, बौद्धिक तथा भौतिक स्तर में अनुभूतियाँ एवं उपलब्धियाँ हैंं ।
श्र अनुभव मात्र सत्य सहज ही है क्योंकि यह अपरिवर्तनीय है, अनुभव यदि परिवर्तनशील हो तो वह अनुभव नहीं है ।
श्र भौतिक क्रिया परिणामी है, अत: सामयिक सिद्ध है । समस्त क्रियाएं नियमों से अनुशासित तथा संरक्षित परिलक्षित होती हैं । नियम अपरिवर्तनीय है, इसलिये नियम सत्य एवं नित्य सिद्ध है ।
श्र सत्य बोध से बौद्धिक समाधान अन्यथा में समस्या है । नियम बोध के बिना सत्य बोध सम्भव नहीं है ।