व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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★ शरीर रचना के संबंध में वंश को भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । बीज संयोजन क्रिया अर्थात् वंश परंपरा प्राणावस्था, जीवावस्था तथा ज्ञानावस्था में अपने-अपने मौलिकता के साथ हैंं । रचना के आधार पर, बीज संयोजन के संबंध में सैद्धांतिक साम्यता पाते हुए प्राणावस्था की इकाई की स्थिति एवं व्यवहार, जीवावस्था की स्थिति एवं व्यवहार तथा ज्ञानावस्था की स्थिति एवं व्यवहार में मौलिक अंतर हैं । अत: स्पष्ट है कि रचना विधि के आधार पर विविधताएँ हैं । यह स्वयंस्फूर्त क्रिया है ।

★ ज्ञानावस्था में मानव ही चारों अवस्थाओं का दृष्टा है । चैतन्य इकाई (मानव) में एकरूपता, जागृति को पाने हेतु प्राप्त समझ ही संस्कार है । यह समझ ही मानव के लिए समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने का कारण है । समझ के आधार पर व्यवहार-कार्य होता है । इससे सिद्ध होता है कि चैतन्य इकाई आशा, विचार, इच्छा एवं ऋतम्भरा व अनुभव का रूप ही हैं । उसी रूप की अभिव्यक्ति में जो सार्थकता है वह स्वयम् में अनुभव मूलक आशाओं, विचारों, इच्छाओं और ऋतम्भरा और अनुभव का बीज रूप और प्रमाण है । मानव तब तक जड़ पक्ष के अधिमूल्यन से मुक्त नहीं हो सकता है, जब तक अपने में निर्भ्रमता को संपन्न करने योग्य क्षमता, योग्यता और पात्रता को सिद्ध नहीं कर लेता है । यह केवल जागृति से ही संभव है । ऐसी क्षमता, योग्यता और पात्रता सिद्ध होने तक जड़ पक्ष एवं इन्द्रिय संवेदनाओं पर नियंत्रण व संतुलन पाना स्वभाव सिद्ध नहीं हुआ । क्योंकि भ्रमित विधि से मानव शरीर से सुख पाने की अपेक्षा में आशा, विचार, इच्छा को फैलाता है । ऐसे में भ्रमित कार्यकलाप करता है । जागृति विधि से स्पष्ट होता है कि मानव वंश और जाति एक ही है तथा वैचारिक वैविध्यता भ्रमवश है ।

ज्ञ जैसे 1- भ्रमित मानव कुछ समय तक उदार-चित्त रहता है परंतु कुछ काल के पश्चात् कृपण हो जाता है । इसी प्रकार विभिन्न दिशाओं में विपरीत कार्य संपन्न करता हुआ मानव-जीवन परिलक्षित होता है । मानव का इन्हीं साविपरीत क्रियाओं में ही अपनी मानसिकता प्रदर्शन, प्रतिदर्शन करना सिद्ध हुआ है । यही भ्रमित मानव का स्वरूप है । पुनर्विचार का भी प्रेरक है ।

ज्ञ 2 - एक व्यक्ति अजागृत है, दूसरे जागृत व्यक्ति के संपर्क में आकर उसमें जागृति के लिए तृषा उत्पन्न होती है तथा उसमें जागृति प्रारंभ होती है । यह वातावरण के प्रेरणावश पाई जाने वाली जागृति क्रम और जागृति प्रक्रिया है ।

श्र जागृति की निरंतरता ही मानव परंपरा सहज महिमा है ।

श्र जागृति क्रम में संस्कार के दो भेद हैं :-

:: सुसंस्कार :- जागृति योग्य प्रवृत्तियाँ जो मानव द्वारा व्यवहृत हैं तथा विचार रूप में अवस्थित हैं । समृद्ध, समाधानित अथवा सार्थक प्रवृत्तियाँ सुसंस्कार हैं ।

:: कुसंस्कार :- जीवों के सदृश्य जीने की प्रवृत्ति ।