व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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ः- विकास की ओर कुण्ठित करने वाली प्रवृत्तियाँ जो मानव द्वारा व्यवहृत है तथा विचार रूप में अवस्थित है अर्थात् ह्रास की ओर गति योग्य प्रवृत्तियाँ एवं विचार कुसंस्कार है ।

ज्ञ समस्त सुसंस्कार अन्ततोगत्वा प्रवृतियाँ एवं इच्छा के रूप में प्रवर्तित होकर समय, स्थान एवं अवसर पाकर कार्य, क्रिया, व्यवहार एवं अनुभूति के रूप में प्रमाणित होते हैं ।

ज्ञ मानव ने जड़-चैतन्य एवं व्यापक के संबंध में अपने महत्व को पहचानने का प्रयास किया है । व्यापक सत्ता अथवा ज्ञान की अनुभूति के बिना पूर्ण विवेक एवं विज्ञान का उदय नहीं होता । पूर्ण विवेक एवं विज्ञान के अभाव में सामाजिकता के संरक्षण और संवर्धन संभव नहीं है । समुचित विधि एवं व्यवस्था के अभाव मेें मानव द्वारा मानव का शोषण होता है ।

श्र पूर्ण विवेक एवं विज्ञान के उदय के अभाव के कारण जो जैसा है, उसे वैसा समझने में मानव असमर्थ होता है । यही भ्रम का कारण है ।

ज्ञ सर्वप्रथम मानव स्वयं को ही समझना चाहता है, पर उपरोक्त वर्णित असमर्थता के कारण स्वयं का सही-सही मूल्यांकन नहीं कर पाता । इसी स्थिति को पूर्व में ‘भ्रान्त’ के नाम से परिचित कराया गया है । शोषण क्रिया इसी भ्रांति स्थिति का परिणाम है ।

ज्ञ अत: जागृति की ओर प्रवृत्त होने के लिए एक मानव की सार्थक प्रयुक्ति यही है कि वह अपने से जागृत मानव के निर्देश, आदेश एवं संदेश की ओर अपनी ग्रहणशीलता को अभिमुख बनाए रखे । केवल इसी प्रक्रिया से मानव सृष्टि में अपने महत्व को जानने व पहचानने में सफल होता है ।

श्र अपने महत्व को जानने व पहचानने पर ही विश्राम सहज उपलब्धि संभव है ।

“सर्व शुभ हो”

अध्याय - पाँच

निर्भ्रमता ही विश्राम

श्र अशेष मानव विश्राम की आशा एवं प्रतीक्षा में है ।

श्र समाधान की ओर विश्राम का तथा समस्या की ओर श्रम का अनुभव है ।

ज्ञ समाधान एवं समस्या मानव के लिये बौद्धिक एवं भौतिक भेद से है ।

श्र भौतिकता में समृद्धि ही समाधान अन्यथा समस्या है ।

श्र बौद्धिकता में अनुभूति ही समाधान अन्यथा समस्या है ।