भौतिकवाद
by A Nagraj
उसकी तृप्ति बिन्दु का अनुभव करना ही दर्शन है। मानव में पहले बताई हुई दस क्रियाओं के अविभाज्य वैभव को जीवन ज्ञान कहा है। इसे स्वयं में पहचानना, जानना, मानना और उसकी तृप्ति बिंदु का अनुभव करना तथा न्याय, धर्म बनाम सर्वतोमुखी समाधान सत्य बनाम अनुभव और प्रामाणिकता पूर्ण विधि से अभिव्यक्त, संप्रेषित और प्रकाशित होना जीवन ज्ञान का तात्पर्य है।
जीवन सहज कार्यकलापों में, से बोध और अनुभव हैं। तृप्ति क्रम में सहअस्तित्व सहज पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था एवं ज्ञानावस्था ये सभी अवस्थाएँ सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति के रूप में नित्य विद्यमान, नित्य वर्तमान है। इस सहज सत्य को जानना, मानना और तृप्ति बिंदु का अनुभव करना, उसकी निरंतरता बनी ही रहना, उसकी अभिव्यक्ति, संप्रेषणा को अध्ययन विधि से सार्थक बना देना, साथ ही स्वानुशासन विधि से जीने की कला को प्रमाणित करना ही दर्शन शास्त्र का सार्थक रूप हैं।
सत्य बोध और अनुभव के लिए दर्शक को ज्ञान दृष्टि द्वारा ही दृश्य समझ में आता है। समझ में आने के मूल में जानना, मानना प्रक्रिया है। जानने, मानने का संयुक्त स्वरुप ही अनुभव बोध हैं। इसकी तृप्ति और अक्षुण्णता ही बोध सम्पन्न परंपरा है। दृष्टा पद का प्रयोग बोध और अनुभव के रूप में ही हो पाता हैं। इसको देखा, समझा और अनुभव किया गया है। बोध और अनुभव, सत्य सहज रूप में ही हो पाता है। परम सत्य सहअस्तित्व ही है। अस्तित्व समग्र शाश्वत वर्तमान है। अस्तित्व में इस धरती में दिखने वाली चारों अवस्थाएँ हैं। इसी का प्रमाण है कि इस धरती पर ये चारों अवस्थाएँ स्वयं प्रमाणित हैं। अस्तित्व में होना ही कभी भी, कहीं भी प्रमाणित होना है।
जैसे अभी हम देख रहे है, समझ रहे है चन्द्रमा पर कोई जीव -जन्तु, वनस्पति नहीं है। कालान्तर में वहाँ ये सब होने की संभावना बनी है। सूर्य को मानव ज्ञान के अनुसार सर्वाधिक तपे हुए बिंब के रूप में पहचाना जाता है। मानव की कल्पना में यह भी आता है कि कालान्तर में यह ठंडा हो सकता है- ऐसा भी सोच सकते हैं। ऐसी स्थिति में इस धरती की स्थिति, गति क्या होगी, इस संदर्भ में कल्पनाओं को दौड़ाया जाता है। सूर्य यदि ठंडा हो गया तो उसके पहले तरल, ठोस रूप में परिवर्तित होगा यह अवश्यंभावी है। तब चन्द्रमा जैसी धरती हो गई, यह माना जा सकता है। अभी चन्द्रमा में जैसा हम