भौतिकवाद

by A Nagraj

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धातु, वनस्पति, जीव- ये वर्तमान में अपने वंशानुषंगीय बीजानुषंगीय और परिणामानुषंगीयता से वैभवित रहते है, परंपरा के रूप में अक्षुण्ण रहते हैं।

मानव अभी तक विभिन्न आयामों के इतिहास सहित घटना क्रम में व्यक्त है। इतिहास में मानव जैसा जीते रहा और वर्तमान में जी रहा है, इसे देखने पर पता चलता है कि सार्वभौम व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी के प्रमाण को मानव प्रमाणित नहीं कर पाया है। फलस्वरुप अखण्ड समाज के स्वरुप का सार्थक होना अपेक्षा के ही रूप में रह गया। इसका मतलब यही निकला कि मानव जाति अपने ढंग से जैसे भी जीती आई और वर्तमान में जैसी है उसके अनुसार मानवत्व को न तो पहचाना गया है, न ही उसे व्यवस्था का रूप दिया गया है, न ही इसे अखण्ड समाज का आधार माना गया है। न मानने का प्रमाण है शिक्षा में मानवीयता का अभाव, संस्कार परंपरा में मानवत्व तथा मानवीयता का अभाव, संविधान में मानव मूल्यों और मूल्यांकन का अभाव, व्यवस्था में मानवत्व मानवीयता संबंध और इसके निर्वाहों का अभाव।

राज्य का अर्थ संस्कार और व्यवस्था सहज वैभव है। धर्म का अर्थ सर्वतोमुखी समाधान पूर्ण ज्ञान ही संस्कार है, शिक्षा बनाम विद्वत्ता है। मानव का संपूर्ण आधार मानवीयता है यह सहअस्तित्व में अनुभव प्रमाण सहज विद्वत्ता ही है। प्रमाण भी मानवीयता और विद्वत्ता ही है। शिक्षा भी मानवीयता और विद्वत्ता हैं। संविधान भी मानवीयता और विद्वत्ता है। व्यवस्था भी मानवीयता और विद्वत्ता है। इस प्रकार मानवीयतापूर्ण परंपरा नित्य समीचीन रहते हुए नस्ल, रंग, रहस्य और वस्तु विभिन्न भाषा, पंथ, संप्रदाय अहमतावश अर्थात् अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति, अव्याप्ति, दोषवश विद्वान और ज्ञानी कहलाने वाले राज, धर्म, विज्ञान, स्वास्थ्य, कला और साहित्य शास्त्रियों ने मानव परंपरा के स्थान पर भ्रमित परंपरा की अनुशंसा कर डाली, फलस्वरुप संपूर्ण प्रचारतंत्र ही भ्रम के वशीभूत हो गया। इसीलिए बेहतरीन समाज की परिकल्पना ही उभर न पायी। बेहतरीन समाज का तात्पर्य अखण्ड समाज ही है। इसी भ्रमवश, मानव का वैभव प्रमाणित न हो पाया। जो कुछ भी मानव का वर्तमान कहा जावे वह केवल वंशवृद्घि है अर्थात् जनसंख्या वृद्घि ही वर्तमान रह गया है।

मानवीयता अपने स्वरुप में जीवन ज्ञान सहित मानवीयतापूर्ण आचरण ही है। विद्वत्ता का स्वरुप अस्तित्व दर्शन ही है। अस्तित्व को समझना ही अर्थात् जानना, मानना,