भौतिकवाद

by A Nagraj

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सोचते है, आशा रखते है, कि भविष्य में रस, उपरस, रासायनिक वैभव वहाँ साकार हो सकता है। उसी प्रकार सूर्य में भी ऐसा हो सकता है यह सोचा जा सकता है। मानव की कल्पनाशीलता सीमित नहीं है, यह कितनी भी हो सकती है। मानव सहज कल्पनाशीलता अक्षय है जबकि अस्तित्व स्वयं में व्यापक और अखण्ड है । शब्दों से यथार्थ को व्यक्त करते हैं। इस गवाही से पता लगता है कि मानव सहज कल्पना देश कालों का दृष्टा हो जाता है। भले ही वह कल्पना द़ृश्यों का दृष्टा न हो।

इस तरह प्रकारान्तर से यह हर व्यक्ति में (दृष्टा होना और कल्पनाशील होना) प्रमाणित होता ही है। अस्तित्व अनंत और व्यापक है। देशकाल से मुक्त हैं। इसी आधार पर इसमें देश कालातीत महिमा का होना अवश्यंभावी रहता है। यह दृष्टा पद मानव में सहज सार्थक होता है। अस्तित्व में जागृत मानव ही दृष्टा पद में है। दृष्टा, दृश्य, दर्शन अविभाज्य है, क्योंकि अस्तित्व में चारों अवस्थाएँ सत्ता में अविभाज्य है। जागृत मानव का अस्तित्व में अविभाज्य प्रमाणित होना ही दृष्टा पद का प्रमाण है। इस तथ्य को ध्यान में लाने पर बहुआयामी कार्य सहित मानव की समीक्षा उनके कार्यों के आधार पर स्पष्ट हो जाती है।

अस्तित्व नित्य वर्तमान है, जागृत मानव दृष्टा पद में है; यह परम सत्य है, इस पर आधारित एक नजरिया है। इस नजरिए से विगत को, इतिहास के ढंग से देखने पर पता चलता है कि सभी परंपराएँ अपने-अपने समुदाय अथवा व्यक्ति के लिए अनेकानेक छल, बल, समोहन, प्रलोभन करती रही और इससे परेशानियाँ बढ़ाता रहा। इसका मूल कारण इतना ही है कि भ्रमित मानव समुदाय परंपरा में अपने ढंग से भ्रमित रहकर भ्रमित परंपरा बनाने के लिए जीवन की शक्तियों को लगाते रहे। आदिकाल से ही मानव जीवन और शरीर का संयुक्त साकार रूप है, जीव चेतनावश भय प्रलोभन रूप में जीवन शक्तियाँ पहले भी काम करती रही है, अभी भी काम कर रही हैं। इस आधार पर वर्तमान में भ्रम-निर्भ्रम संबंधी परीक्षण करने जाते है तब पता चलता है कि :-

1. मानव सर्वप्रथम कल्पनाओं को भ्रमवश सत्य मानता रहा है।

2. भ्रमित विचारों के आधार पर सत्य मान लेता है।

3. भ्रमित इच्छाओं के आधार पर सत्य मान लेता है।

4. सत्य बोध के आधार पर सहअस्तित्व समझ में आता है।