भौतिकवाद

by A Nagraj

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5. सहअस्तित्व रूपी परम सत्य में अनुभव के आधार पर सत्य समझता है, प्रमाणित रहता है।

इस चित्रण में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मानव में दस क्रियाएँ बताई गई है, जिनमें से पाँच क्रियाएँ बल के रूप में तथा पाँच क्रियाएँ शक्ति के रूप में कार्यरत रहती हैं। जागृत मानव में, से, के लिए बल और शक्ति ही, स्थिति और गति के रूप में प्रमाणित होते हैं। स्थिति और गति अविभाज्य है, इसको स्वयं में ऐसा अनुभव किया जा सकता है, निरीक्षण किया जा सकता है। मनोबल आस्वादन-चयन के रूप में, वृत्ति बल तुलन-विश्लेषण के रूप में, चित्त बल चिन्तन-चित्रण के रूप में, बुद्घि बल बोध व संकल्प के रूप में, आत्मबल अनुभव प्रामाणिकता के रूप में पहचानने में आता है। शक्तियाँ क्रमश: मन शक्ति चयन के रूप में, वृत्ति शक्ति विश्लेषण के रूप में, चित्त शक्ति चित्रण के रूप में, बुद्घि शक्ति संकल्प के रूप में, आत्म शक्ति प्रामाणिकता के रूप में प्रमाणित हो पाता है।

भ्रमित मानव का सामाजिक होने का प्रश्न ही नहीं होता। अमानव ही पशुमानव और राक्षस मानव के रूप में व्याख्यायित होते हैं। राक्षस मानव क्रूरता प्रधान होते है और पशु मानव दीनता प्रधान रहते है, ये दोनों अमानवीय कोटि में आते हैं। इसीलिए अमानवीय परंपरा में अपराधों का पनपना होता ही है।

अस्तु, सार्थक निष्कर्षों को निकालने की आवश्यकता अधिकांश लोग महसूस करते है। निष्कर्ष की ओर कल्पना, विचार, इच्छाओं को दौड़ाने पर परंपराओं की निरर्थकता समझ में आता है। इसके बदले में क्या हो- यह सार बात है। समाधानात्मक भौतिकवाद ने निर्णायक विधियों को पाने के लिए विज्ञान, विवेक और ज्ञान सम्मत तर्क प्रणाली को अपनाया। विज्ञान का तात्पर्य कालवादी, क्रियावादी, निर्णयवादी ज्ञान से हैं। विवेक का तात्पर्य जीवन का अमरत्व अर्थात् जीवन ज्ञान संपन्नता, शरीर का नश्वरत्व और व्यवहार के नियम अर्थात् :-

1. बौद्घिक नियम

2. सामाजिक नियम

3. प्राकृतिक नियम से है।