भौतिकवाद

by A Nagraj

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देश, अनजान व्यक्ति, अनजान भाषा आदि की विपरीतता होते हुए भी एक दूसरे से मिलने के लिए जब कोई व्यक्ति मानसिकता बनाता है, तब सामने वाला व्यक्ति विश्वास निर्वाह करने में ही अधिक भरोसा करता है। इसी क्रम में हर संस्था में भागीदारी करने वालों की परस्परता में विश्वास निर्वाह होने की इच्छा बनी रहती है। हर समुदाय, हर देश की परस्परता में भी विश्वास निर्वाह की निश्चित रूप रेखा के साथ निर्वाह करने की स्थिति में परस्पर मित्र राष्ट्र, मित्र समुदाय कहलाते हैं। अर्थात् परस्पर निश्चित अपेक्षाएँ निर्वाह होने की स्थिति में यह परस्पर मित्रता कहलाती हैं। इसका निश्चित न्याय बिन्दु या सार्वभौम न्याय बिन्दु मानवीयता और पांडित्य के साथ ही प्रमाणित हो पाता है।

अस्तित्व सहज मानव में समग्र अस्तित्व के प्रति विश्वास, वर्तमान के प्रति विश्वास, स्वयं के प्रति विश्वास होना, संबंधों को पहचानना, मूल्यों का निर्वाह करना, मूल्यांकन करना बन जाता है। यह जागृत मानव परंपरा में ही सर्व सुलभ सर्वसाध्य हो पाता है। समुदाय परंपराओं में यह संभव नहीं हो पाता। इसका प्रमाण आज तक का बीता हुआ इतिहास है।

विश्वास मूलत: वर्तमान में निष्ठा ही है। निष्ठा के फल में समाधान होने की स्थिति में उसकी (निष्ठा की) निरंतरता होने के लिए प्रयास बना रहता है । वर्तमान में समाधान व्यवस्था का ही प्रमाण है। ऐसा सर्वतोमुखी समाधान, सार्वभौम व्यवस्था व अखण्ड समाज परंपरा में प्रमाणित होता है। सर्वतोमुखी समाधान क्रम में प्रत्येक मानव व्यवस्था में भागीदारी के रूप में प्रमाणित हो पाता है। यही प्रत्येक मानव में समाधान का प्रमाण है।

रासायनिक-भौतिक वस्तुएँ और जीव संसार स्वयं में व्यवस्था संपन्न है। रासायनिक-भौतिक वस्तुएँ पूरकता, उदात्तीकरण विधि से अथवा नियम से व्यवस्थित रहने का प्रमाण नित्य प्रस्तुत करती है। जिसमें दृष्ट रूप में मानव का कोई योगदान नहीं है क्योंकि जिस किसी भी धरती में मानव होगा, उसके अवतरण के पहले ही रासायनिक-भौतिक वैभव और जीव कोटि का कार्यकलाप विद्यमान रहा हैं। उक्त तीनों परंपराओं में व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी स्पष्ट हो चुकी है। व्यवस्था का तात्पर्य है वर्तमान में वैभव होना, परंपरा के रूप में अक्षुण्ण होना। मृत (मिट्टी), पाषाण, मणि,