भौतिकवाद
by A Nagraj
अर्थात् जीवावस्था, प्राणावस्था, पदार्थावस्था के लिए और मानव (मानव) के लिए पूरक है। यह अस्तित्व सहज सत्य है, पर परंपराओं को भ्रम रहा एवं स्वयं उसकी अजागृतिवश मानव के लिए पूरक होने के जितने भी अवसर और आवश्यकताएँ है, उतनी पूरकता को मानव प्रणाणित नहीं कर पाया। अब तक कोई कोई लोग मानव कुल के लिए किसी भी अंश में, किन्हीं भी आयामों मे पूरक हुए हो ऐसे लोगों का यहाँ आज भी गीत गाया जाता है ।
मानव के बहुआयामी इतिहास में उन सभी आयामों के लिए पूरक होने के प्रमाण को मानव अपने कुल के लिए समर्पित नहीं कर पाया। इसी कारण अब प्रबुद्घ मानवों का यह दायित्व होता है कि सभी आयामों में जो रिक्त और अपेक्षित भाग है उसकी भरपाई कर देवें। उसमें से प्रथम और प्रमुख आयाम यही देखने को मिला-व्यवस्था और समग्र व्यवस्था मे भागीदारी। मानव जागृतिपूर्वक ही इसकी भरपाई कर पायेगा।
जागृति मानव की सर्वकालीन अपेक्षा और आवश्यकता है। अभी यह इस प्रकार से संभव हो गया कि-
अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित दर्शन विधि से मानव ही चिंतनशील एक मात्र इकाई हैं। चिंतन का मूल तत्व अथवा मूल वैभव जीवन सहज रूप में होने वाले जानने, मानने के रूप में और उसके तृप्ति बिंदु के रूप में है। यही मानव में दर्शन ज्ञान का वैभव है। सहअस्तित्व दर्शन ही परम दर्शन है क्योंकि सहअस्तित्व ही परम सत्य है और जीवन विद्या ही परम विद्या हैं। इसका साक्षात्कार करने का उपाय है। मानवीय आचरण ही मानव में, से, के लिए परम आचरण है क्योंकि मानव मानवत्व सहित ही अपने में व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदारी कर सकता है। इसकी आवश्यकता प्रत्येक व्यक्ति को है।
अस्तित्व सहज सहअस्तित्व में संपूर्ण प्रकृति को भौतिक-रासायनिक एवं चैतन्य रूप में मानव देख, समझ पाता है। चैतन्य रूप में जो जीवन देखने को मिल रहा है, इसे देखने वाला मानव ही है। दिखने वाली चीज मानव के लिए अध्ययनगम्य हो पाती है। जैसे- प्रत्येक मानव में चयन और आस्वादन, विश्लेषण और तुलन, चित्रण और चिंतन, संकल्प और बोध, प्रामाणिकता और अनुभव - ये दस क्रियाएँ जीवन सहज क्रियाएँ हैं। इनके प्रकाशन संप्रेषणा और अभिव्यक्ति क्रम में शरीर को जीवन्त माना जाता है।