भौतिकवाद
by A Nagraj
1. पदार्थावस्था की संपूर्ण रचनाएँ, उसका फल सहअस्तित्व में पूरकता के रूप में स्वीकृत है।
2. इसी भाँति प्राणावस्था, जीवावस्था, ज्ञानावस्था सहज शरीर रचनाएँ उसका प्रयोजन और कार्य सहअस्तित्व में स्वीकृत है ।
सहअस्तित्व में स्वीकृति का सिद्घांत यही है - ‘त्व’ सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी, यह सहअस्तित्व सहज अभिव्यक्ति है। इसलिए यह व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी होने का कार्य प्रणाली और फल परिणाम पहले से स्वीकृत है। इसका साक्ष्य यही है कि परमाणु को परमाणु का संघटित विघटित कार्य और परिणाम अस्तित्व में पूरकता विधि से स्वीकृति होना पाया जाता है। इसी प्रकार एक झाड़ और पौधा भी अपने बीजानुषंगीय विधि से रचना-विरचना के रूप में ही अपने कार्य और परिणाम को व्यक्त करता है। यह सहअस्तित्व में स्वीकृति है। इस संदर्भ में पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि संपूर्ण वनस्पति रचनाओं का सभी जीवों और मानवों के लिए आहार आदि विधि से पूरक रहना पाया जाता है। वही विरचना की स्थिति में पदार्थावस्था के लिए पूरक होना पाया जाता है।
जीवों में भी यह देखने को मिलता है कि अधिकतर वंशानुषंगीय परंपरा निश्चित कार्य-व्यवहार विहार करता है- यह स्पष्ट हो चुका है। इन सब का शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में होना पाया जाता है। शरीर ही अनेक रचनाओं का स्वरुप है। इन रचनाओं में जीव जाति पर्यन्त, प्राणावस्था और पदार्थावस्था के लिए पूरक होना पाया जाता है। सभी वन्य प्राणी जीवित अवस्था में वनस्पतियों के लिए अर्थात् प्राणावस्था के लिए पूरक है यह देखने को मिलता है। जीव जानवरों की श्वसन क्रिया से, मलमूत्र से बहुत सारी वनस्पतियों का रोग दूर होता है। शरीर जब विरचित हो जाता है, तब वह खाद गोबर होता ही है। इस प्रकार तीनों अवस्थाओं की परस्पर पूरकता को मानव देखता है। मानव इन तीनों अवस्थाओं के लिए पूरक है, यह स्वीकारता है। इसकी आवश्यकता को अनुभव करता है तब पूरकता की कसौटी में ठीक उतरता है। मानव अभी तक कसौटी में ठीक उतरा नहीं है।
अभी भी इसकी (मानव का अन्य अवस्थाओं के लिए) पूरक होने की प्रतीक्षा है। इस विधि से जो तथ्य इंगित होता है, वह यह है कि जागृत विधि से मानव भी अन्य प्रकृति