भौतिकवाद

by A Nagraj

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युग में संक्रमित होना चाह रहे हैं। इससे यह देखने को मिलना बहुत आवश्यक है कि व्यवहार में “मानवत्व” प्रमाणित होता रहे।

“मानवीयता” व्यवहार में प्रमाणित होने का तात्पर्य यही है कि -

1. हम जीवन ज्ञान में पारंगत रहेंगे। स्वयं के प्रति विश्वास करेंगे श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करेंगे।

2. अस्तित्व दर्शन में निर्भ्रम रहेंगे।

3. स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष, दयापूर्ण कार्य-व्यवहार करेंगे।

4. तन, मन, धन रुपी अर्थ का सदुपयोग एवं सुरक्षा करेंगे।

5. संबंधों को पहचानेंगे, मूल्यों का निर्वाह करेंगे, मूल्यांकन करेंगे।

यही मानवीयता को व्यवहार में प्रमाणित करने परस्पर तृप्ति और संतुलन का तात्पर्य है।

हर अवस्था की हर इकाई अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करते हुए दिखाई पड़ता है। इस सूत्र के साथ एक सूत्र और हाथ लगता है- भागीदारी को निर्वाह करना अर्थात् पहचानना और निर्वाह करना है। भौतिक-रासायनिक पद्घति में भी यह वैभव देखने को मिलता है, जैसे –

परमाणु में एक से अधिक अंश एक दूसरे को पहचानते हुए निर्वाह करते है- इसलिए व्यवस्था है। अणु रचित पिण्डों के रूप में संग्रहित रहते है। अथवा विरल रूप में भी रहते हैं। ये सब एक दूसरे की पूरक विधि से कार्य करते है- यह प्रमाणित होता है। इसका साक्ष्य लौह परमाणु से रचित अणु रचित पिण्डों को मानव देखता है। इसी भाँति सोना आदि से भी धातुओं, मणियों, पाषाणों और मिट्टी अपने सहज रूप में एक-एक प्रजाति अपने-अपने में और सभी प्रजातियों के साथ सभी प्रजातियाँ तालमेल बनाए रखती है। इस तरह इस धरती का रूप दिखाई पड़ता है। इसी धरती में रासायनिक सहज वैभव वैभवित हो चुका है अर्थात् रासायनिक द्रव्यों की जो-जो रचनाएँ होनी थी वे सब हो चुकी। “होनी थी” का तात्पर्य यही है कि सहअस्तित्व में सभी रचना कार्य, परिणाम, प्रयोजन स्वीकृत रहता ही है। इसकी गवाही यही है कि-