भौतिकवाद

by A Nagraj

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रूप में बढ़ते-घटते अवश्य हैं। इसके आधार पर अर्थात् मानव शरीर के आधार पर नाप-तौल के आधार पर जिसको हम मात्रा कहते है उस विधि से घटने-बढ़ने मात्र से उन उन वस्तुओं का गुण, स्वभाव जो “त्व” के रूप में प्रमाणित रहती है वह न तो घटती है और न ही बढ़ती है। यह इस बात का साक्ष्य है कि विकास क्रम में हर बिन्दु अपने में विकास क्रम में निश्चित है, क्योंकि लोहत्व, स्वर्णत्व, मणित्व ये सब अपनी अपनी प्रजात्यात्मक परमाणुओं से रचित रचना के रूप में स्पष्ट है। यह सब विकास क्रम में निश्चयता का द्योतक है। इसी आधार पर सहअस्तित्व में प्रत्येक एक अपने त्व सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदार है। इस सत्य को ख्यात करता है।

इसी क्रम में रासायनिक वस्तुएँ अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदार है। प्राणकोषाओं से ही संपूर्ण वनस्पतियाँ रचित हुआ करती हैं। इन्हीं प्राणकोषाओं से ही जलचर, नभचर, भूचर जीवों का भी शरीर रचित रहता है। इनमें से प्राणावस्था की सभी रचनाएँ (अर्थात् पेड़-पौधे) ऋतु संतुलन के आधार पर वैभवित रहता है और जीव तथा मानव के आहार आदि के रूप में पूरक होता है। प्राणावस्था की विरचना पदार्थावस्था के लिए पूरक है- यह स्पष्ट हुआ एवं प्रमाणित हुआ है। ये सब उर्वरक के रूप में परिवर्तित होकर धरती की उर्वरा शक्ति को बढ़ा देते हैं। इस प्रकार भौतिक-रासायनिक वस्तुएँ सहअस्तित्व के रूप में व्यवस्था को प्रमाणित करता है।

अस्तित्व सहज वर्तमान में मानव जब जागृतिपूर्वक दृष्टा पद में होता है-ऐसी स्थिति में भौतिक-रासायनिक व चैतन्य जीवन, ये समस्त वस्तुएँ व्यापक असीम अवकाश रुपी सत्ता में संपृक्त और अविभाज्य रूप में होना-रहना स्वीकार होता है- यह समझ में आता है। यही मानव में, से, के लिए जागृत होने के क्रम में मुख्य मुद्दा है। ऐसी अविभाज्यता वर्तमान में अनुभव होना ही निर्भ्रमता का प्रमाण है। इस प्रकार इस अस्तित्व को समझने के उपरान्त प्रत्येक मानव प्रामाणिक होता ही है।

प्रामाणिक होने के लिए सहअस्तित्व रूपी सत्य में अनुभव करना मानव के लिए संभव है। यह सभी को तभी संभव है, जब शिक्षा का मानवीयकरण हो जावे। इन तीनों स्थितियों में मानव के वैभवित होने के लिए जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान ही प्रधान तत्व है। इस सत्य सहज जागृति को मानव प्रमाणित करें यह एक आवश्यकता है क्योंकि:-