भौतिकवाद
by A Nagraj
है। इसका लोक व्यापीकरण हो सकता है और प्रत्येक व्यक्ति इसे स्वीकारने के लिए बाध्य है। इस बाध्यता का तात्पर्य आवश्यकता, विचार, इच्छा, कल्पना के रूप में सहमति से है। जागृति सहज आवश्यकता के संदर्भ में परीक्षण किया जा सकता है। बच्चे, बूढ़े, ज्ञानी, अज्ञानी, गरीब, अमीर सबसे इस बात की परीक्षा की जा सकती है कि जागृति एक आवश्यक तत्व है या नहीं। सबका निष्कर्ष यही होगा कि जागृति आवश्यक है। इस प्रकार मानव में जागृति की आवश्यकता ख्यात होना प्रमाणित है।
जागृति का परिणाम जानना, मानना, पहचानना और निर्वाह करना ही है। यह जागृति प्रत्येक व्यक्ति में प्रमाणित हो सकता है। यह तभी संभव है जब परंपरा जो जागृति का कारक, धारक एवं स्रोत है, स्वयं जागृत रहे। अभी तक परंपरा ही भ्रमित रहा। इसका परिणाम है कि अखण्ड समाज और उसकी निरंतरता प्राप्त नहीं हुई और सार्वभौम व्यवस्था प्राप्त नहीं हुआ। इसका साक्ष्य यही है कि अभी तक अखण्ड समाज का स्वरुप नहीं बन पाया और न ही सार्वभौम व्यवस्था का।
सार्वभौम व्यवस्था को पाने के क्रम में रासायनिक व भौतिक क्रियाकलापों का विधिवत् अध्ययन करना ही होगा। विधिवत् अध्ययन का तात्पर्य है- जो साक्ष्य और वैभव अस्तित्व सहज रूप में ही वर्तमान है उसको वैसे ही जानना, मानना, पहचानना और निर्वाह करना। ऐसा करने पर पता चलता है कि रासायनिक रचनाएँ, चैतन्य प्रकृति के लिए पूरक है और विरचनाएँ जड़ प्रकृति के लिए पूरक है। भौतिक वस्तुओं का मूल रूप और व्यवस्था का प्रमाण विकास को व्यक्त करने वाला वस्तु परमाणु है। प्रत्येक परमाणु अपने में व्यवस्था होने का प्रमाण है। अणु और अणु रचित पिण्डों के रूप में वस्तुएँ है, इस तथ्य को स्पष्ट किया जा चुका है। अतएव व्यवस्था और विकास को पहचानने का आधार परमाणु है न कि रचना।
जिस रचना में जो वस्तु समाहित है उससे वह रचना अधिक नहीं होता। दूसरी विधि से जो जिस वस्तु से बना रहता है, उस रचना की संपूर्ण मौलिकता उस वस्तु के समान होती है। इसको समझने के क्रम में एक लोहे का परमाणु, अनंत परमाणु, एक लोहे का पिण्ड, अनेक पिण्ड ऐसा देखने को मिलता है। लोहे के एक अणु में जितने भी परमाणु समाहित रहते है, उसका मूल्य मूलत: एक परमाणु में लोहत्व समान ही होता हैं। इस आधार पर किसी भी एक प्रजाति के परमाणु से रचित रचनाएँ, आकार, आयतन, घन