भौतिकवाद
by A Nagraj
संपूर्ण वस्तुएँ सत्ता में ही संपृक्त है एवं बल संपन्न हैं। इस कारण प्रत्येक अंश में, अंश के अंशों में भी व्यवस्था के रूप में व्यक्त होने का मूल बीज समाया हुआ है। इसकी साक्षी ऊर्जा संपन्नता ही है। सत्ता में संपृक्तता ही निरंतर मूल ऊर्जा स्रोत का आधार हैं। सत्तामयता संपूर्ण प्रकृति को नित्य प्राप्त है । सत्ता इस रूप में व्यापक ऐश्वर्य को सहअस्तित्व में ही वर्तमान सहज रूप में अभिव्यक्त किया है। इसीलिए संपूर्ण अस्तित्व निरंतर व्यक्त है।
मानव परंपरा में व्यक्त और अव्यक्त की चर्चाएँ रही हैं। जबकि अस्तित्व सहज रूप में संपूर्ण अस्तित्व व्यक्त रूप में देखने को मिलता है । सत्तामयता ही परम सूक्ष्म अस्तित्व कहा जा सकता है। मानव को अपनी समझदारी को व्यक्त करने के लिए भाषा का प्रयोग करना भी एक आवश्यकता है। जीवावस्था एवं स्वेदज में भी ध्वनियों के आधार पर पुरानी पीढ़ी के कार्यकलापों को पहचानते एवं संपन्न करते हुए देखने को मिला।
भाषा और मानव भाषा:
भाषा और मानव भाषा में जो महत्ताएँ है, उन तत्वों को यहाँ समझ लेना प्रासंगिक होगा। इसके मूल में मानव को एक जाति के रूप में पहचानना एक अनिवार्यता है- क्योंकि संघर्ष युग से समाधान की ओर संक्रमित होने के लिए मानव को एक जाति के रूप में पहचानना बहुत आवश्यक है। इसमें अर्थात् मानव को एक जाति के रूप में पहचानने में जो कठिनाइयाँ गुजरीं, उसे मानव के विभिन्न इतिहासों में स्पष्ट किया गया है। पुन: इस बात को ध्यान में लाना आवश्यक है कि किसी नस्ल, रंग, जाति, संप्रदाय, वर्ग अथवा धर्म कहलाने वाले मत-मतान्तर अथवा मतभेदों से भरे हुए धर्म, पंथ, भाषा या देश के आधार पर संपूर्ण मानव को एक जाति के रूप में एक इकाई के रूप में पहचाना नहीं जा सका। मानव की एक जाति के रूप में, एक इकाई के रूप में पहचानने के लिए मूल तत्व सार्वभौम व्यवस्था ही है। जिस व्यवस्था का सूत्र मानवत्व ही है।
मानवत्व सहित मानव स्वयं व्यवस्था है; यही सर्वतोमुखी समाधान, सुख, परम सौंदर्य और मानव धर्म हैं। इस प्रकार मानव धर्म के आधार पर ही एक इकाई के रूप में मानव को पहचाना जा सकता है। इस प्रकार समाधान युग में संक्रमित होने के लिए मानव को