भौतिकवाद
by A Nagraj
इससे और भी एक निश्चयात्मक समीक्षा समझ में आती है कि वांङ्गमय की राशियाँ दो ही प्रजाति में है। एक प्रजाति के मूल में रहस्य ही रहस्य है जिसकी थाह पाना किसी के लिए संभव हुआ ही नहीं। दूसरी प्रजाति के मूल में अनिश्चयता और अस्थिरता जुड़ी है। हर व्यक्ति इस बात को समझ सकता है कि अनिश्चयता, अस्थिरता और रहस्य की लंबाई चौड़ाई को मापना किसी के लिए भी संभव नहीं हैं। इसलिए ये दोनों वाद मानव मानस के लिए “यही सत्य है”- ऐसा अंगुलि न्यास कर सकें अथवा इंगित करा सकें ऐसा कोई ध्रुव वस्तु हाथ नहीं लगा।
अस्तित्व :- सत्य में पूर्णतया इंगित होने, तृप्त होने, गतिशील होने और नित्य निश्चित होने के रूप में हम प्रत्येक मानव को अस्तित्व में, से, के लिए देख सकते हैं। अस्तित्व न घटता है, न बढ़ता है इसलिए अस्तित्व स्थिर है यह दिखाई पड़ता हैं। अस्तित्व नित्य वर्तमान है, इसीलिए, अस्तित्व निरंतर स्थिर है यह दिखाई पड़ता हैं। अस्तित्व स्वयं किसी के लिए बाधा नहीं है और अस्तित्व पर किसी की बाधा अथवा हस्तक्षेप भी नहीं हैं। अस्तित्व निरंतर सामरस्य है, समाधान है, इसीलिए अस्तित्व ही परम सत्य है।
सत्ता :- अस्तित्व में सत्ता व्यापक रूप में हर किसी को दिखती हैं। दिखने का मतलब समझ में आने से है। अस्तु, प्रत्येक मानव में, से, के लिए सत्ता व्यापक रूप में विद्यमान है। यह दिखता है। जैसे एक दूसरे के बीच में जो कुछ भी शून्य दिखाई पड़ता है वह मूलत: सत्ता ही है। भौतिक -रासायनिक वस्तुएँ और जीवन जैसी वस्तु (वास्तविकता) सत्ता में संपृक्त है। इसीलिए प्रत्येक एक सत्ता में घिरा और डूबा हुआ दिखाई पड़ता है ऐसा दिखने के आधार पर ही एक दूसरे की दूरी की कल्पना मानव करता है और दिखाई पड़ता है। जैसे सूर्य से धरती की दूरी दिखती हैं। यह धरती तथा ऐसे ही प्रत्येक धरती सत्ता में डूबा, घिरा और भीगा हुआ है। डूबा, घिरा दिखना स्वयं एक दूसरे के बीच में जो वस्तु है- इसी को देखना हुआ, यही सत्ता है।
भ्रम :- रासायनिक, भौतिक वस्तुएँ ठोस, तरल और विरल रुपों में विद्यमान हैं। विरल अवस्था में भी प्रत्येक अणु अथवा सम्मिलित एक से अधिक अणु “एक” के रूप में ख्यात हैं। इसी भांति परमाणु में निहित अंशों में, उन अंशों को यदि विखण्डित किया जाये तो प्रत्येक खंड “एक” ही कहलाएगा। यह क्रिया व्यवहार रूप में तो होती नहीं तथापि मानव की कल्पना सहज वैभव को गणित के रूप में पहचाना गया है। गणित