भौतिकवाद

by A Nagraj

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एक इकाई के रूप में पहचानना अनिवार्य स्थिति है अथवा परम आवश्यकता हैं। इसी के साथ मानव भाषा को पहचानना भी आवश्यकता के रूप में अथवा अनिवार्यता के रूप में आई। बोलने का तरीका, ध्वनि, उच्चारण, मानव सहज कर्म स्वतंत्रता और कल्पनाशीलता के चलते अनेक प्रकार से अयस्त हो सका है। मानव भाषा का अर्थ एक ही होता है अथवा सभी भाषाओं का अर्थ एक ही होता है। यह भाषा अस्तित्व में किसी वस्तु, कार्य, देश, काल, प्रक्रिया, परिणाम, स्थिति, गति का निर्देशित व इंगित होना हैं। अर्थात् भाषा का अर्थ अस्तित्व सहज वर्तमान ही होता है। जैसे कुत्ता, बिल्ली, घोड़ा, गधा, बैल, बाघ, भालू, धरती, पानी, आकाश, तारागण, सौर व्यूह, मानव आदि जितने भी नाम लेते है ये अभी तक भी सभी भाषाओं में इनके लिए प्रयुक्त ध्वनि गति तरंग और उसको प्रस्तुत करने की अंग अवयवों का उपयोग और तरीका- ये सब मिलकर भाषा का स्वरुप होता हैं। जैसे- हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू आदि भाषाओं के नाम हैं। इन भाषाओं से इंगित होने वाली वस्तुएँ अस्तित्व में है, अस्तित्व से है, अस्तित्व के लिए हैं। इस आधार पर पानी के लिए कोई भाषा बोली जाये उसका अर्थ वस्तु के रूप में पानी ही है। प्रत्येक वस्तु के लिए कोई भाषा अपने तरीके से प्रस्तुत हो उस अर्थ में मिलने वाली वस्तु अस्तित्व में ही है। इस प्रकार मानव किसी भी प्रकार से भाषा का प्रयोग करें उसमें अर्थ रुपी वस्तु अस्तित्व में होना प्रमाणित होता है। इस प्रकार कोई भी भाषा हो या कितनी भी भाषाएँ हों उसका आश्य या अर्थ अस्तित्व में किसी निश्चित वस्तु को निर्देशित करना ही है।

“वाद : संपूर्ण अस्तित्व ही व्यक्त समझ में आने से है या अव्यक्त समझ में नहीं आने से है।” इस विवाद में मानव फँसा रहा। अस्तित्व समझ में नहीं आया है, क्योंकि अभी तक प्रचलित दोनों वादों (भौतिकवाद, अध्यात्मवाद) अस्तित्व में से किसी एक भाग को सर्वस्व मान कर अथवा वस्तु मानकर सारी कल्पनाओं को फैला दिया। ऐसी फैलाई हुई कल्पनाएँ खासी मोटी वांङ्गमय बनकर मानव के सम्मुख रखी हुई हैं। ऐसे मोटे वांङ्गमय से निपटना अर्थात् मूल रूप में परिशीलन करना हर व्यक्ति के बलबूते में नहीं है। इसलिए सर्वाधिक व्यक्ति किसी एक वाद के पीछे चल देते हैं। इस विधि से प्रत्येक व्यक्ति के आगे एक वांङ्गमय या एक मानव ही रह जाता है।