भौतिकवाद
by A Nagraj
(वास्तविकता) है, जिसमें मनुष्येत्तर प्रकृति से भिन्न मौलिक वर्चस्व संपन्नता सहज उत्सव जैसा- विधि एवं निषेध से नियंत्रित होना है। इनमें से प्रथम - कर्म स्वतंत्रता है। दूसरा - कल्पनाशीलता है। तीसरा - कर्म करते समय में स्वतंत्र, फल भोगते समय में परतंत्र हैं। चौथा - अपनी परिभाषा में मनाकार को साकार करने वाला मन:स्वस्थता का आशावादी एवं प्रमाणित करने वाला है। ये सब मौलिकताएँ प्रत्येक मानव में निरीक्षण, परीक्षण पूर्वक देखना सहज है। इन्हीं सब ऐश्वर्यों के चलते जागृति पूर्वक मानव ही अस्तित्व में दृष्टा है- यह मौलिकता भी मानव की झोली में रखी हुई है। ये सब रहते हुए भ्रमित होने का मूल तत्व यहीं है, सशक्त तत्व यही है -
1. अभी तक बनी हुई व्यक्तिवादी, समुदायवादी परंपराएँ है।
2. नैसर्गिकता है।
3. वातावरण है।
संपूर्ण अस्तित्व में प्रत्येक एक व्यापक में स्थित अनंत सहज वातावरण ही है। “नैसर्गिकता” धरती, हवा, पानी और हरियाली एवं जीवों के रूप में देखने को मिलती है । प्रत्येक मानव को संस्कार परंपरा से ही मिलते हैं। यह सब नित्य प्रमाण ही हैं। इन्हीं के आधार पर केवल मानव की देन रुपी शिक्षा-संस्कार से ही मानव का भ्रमित होना देखा जा रहा है। इस मोड़ पर बुद्घिजीवी कहलाने वाले यह भी पूछ सकते है कि भ्रम-निर्भ्रम की बात छेड़ने वाला आदमी भ्रमित नहीं है? इस बात को पहचाना कैसे जाये? क्योंकि पहले जिस वातावरण, नैसर्गिकता और परंपरा की बात कही गई है उसी में से किसी परंपरा में यह आदमी भी है। इस प्रकार से प्रश्न होना मानव की कल्पनाशीलता सहज वैभव है।
भ्रम-निर्भ्रम :- इस प्रश्न का उत्तर अस्तित्व में दृष्टा (जागृत व्यक्ति) व्यक्ति दे सकता है। इसीलिए इस व्यक्ति ने भ्रम-निर्भ्रम की बात उठाई है। सहज रूप में अस्तित्व में पढ़ लिया है, देख लिया है, समझ लिया है। यहाँ यह स्मरण रखने योग्य है कि भौतिक-रासायनिक वस्तुओं को जब अवस्था के रूप में अध्ययन करने के लिए - “समाधानात्मक भौतिकवाद” संकल्पित हो गया, तब यह विश्वास करने के लायक है कि जो-जो बातें कही गई है वे अध्ययन के लायक हैं। इनके लिए किन्हीं पूर्व ग्रंथों का उद्धरण नहीं हैं। इसलिए इन बातों का अध्ययन करके जो भी इसे समझना चाहे, इसे