भौतिकवाद
by A Nagraj
अध्याय - 6
सहअस्तित्व पूरकता और व्यवस्था
इस अध्याय में युद्घ के स्थान पर सहअस्तित्व, शोषण के स्थान पर पूरकता, अव्यवस्था के स्थान पर व्यवस्था और संग्रह के स्थान पर समृद्घि के लिए प्रेरणा है।
“समाधानात्मक भौतिकवाद” भौतिक-रासायनिक वस्तुओं को व्यवस्था के रूप में अध्ययनगम्य कराता है।
अस्तित्व ही अध्ययन की संपूर्ण वस्तु हैं। सहअस्तित्व में ही रासायनिक-भौतिक वैभव विद्यमान हैं। भौतिक वस्तुएँ ठोस और विरल रूप में विद्यमान हैं। जबकि रासायनिक द्रव्य ठोस, तरल, विरल रूप में वैभवित है। भौतिक क्रियाकलापों के मूल में, आधार बिन्दु के रूप में परमाणु है । परमाणु आधार होने का तात्पर्य वह अपनी स्वभाव गति में स्वयं एक व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी है यह प्रमाणित होता है। परमाणु के स्वभाव गति में होने का प्रमाण, अनेकानेक परमाणु मिलकर अणु के रूप में व्यक्त होने से है। ऐसे अनेक अणुओं का बड़े-छोटे पिण्डों के रूप में रचित रहना दृष्टव्य हैं। इसी तथ्य के आधार पर यह धरती बड़े से बड़े पिण्ड के रूप में दिखती हैं। यह सब स्वभाव गति सहज अस्तित्व का वैभव है- यह समझ में आता है।
परमाणु अपने में एक से अधिक अंशों के सहअस्तित्व में व्यवस्था है। प्रत्येक परमाणु एक से अधिक अंशों के साथ ही स्वयं व्यवस्था होने, समग्र व्यवस्था के साथ भागीदार होने के प्रमाण को प्रस्तुत करता है। परमाणु अपने में व्यवस्था के रूप में है, इस क्रम में एक से अधिक अंशों के साथ ही सहअस्तित्व अवश्यंभावी हुआ। इसके मूल में अस्तित्व है, सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति के रूप में, इस तरह सहअस्तित्व नित्य वर्तमान है। इस प्रकार अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व के रूप में नित्य प्रभावी एवं वर्तमान है । वर्तमान ही वस्तुओं में वास्तविकता का प्रकाशन है। वास्तविकता, तात्विक रूप में, वस्तुओं की बनावट और उसके वैभव सहज योगफल के समान (बराबर) होता हैं। प्रत्येक वस्तु का संपूर्ण वैभव उसके वातावरण अथवा प्रभाव क्षेत्र सहित गम्य होता है।