भौतिकवाद

by A Nagraj

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अव्यवस्था = दर्द = समस्या = गुणात्मक भाषा।

अव्यवस्था के कारक तत्व की समझ = घटना का अध्ययन

समस्या का कारण = कारणात्मक भाषा।

इसी तरह,

व्यवस्था की समझ = सुख = समाधान = गुणात्मक भाषा।

व्यवस्था के कारक तत्व की समझ = घटना का अवयव = नियतिक्रम = समाधान का कारक = कारणात्मक भाषा।

इस गवाही के साथ ही विकास का अभीष्ट स्पष्ट हो जाता है।

समाधान ही विभव का आधार हैं। समाधान पूर्वक ही प्रत्येक विकास की कड़ी अपने आप में प्रकाशित होती हैं। यही समाधान नित्य परंपरा और त्राण तथा प्राण होने के कारण यह स्पष्ट हो जाता है कि समाधान के पद में ही विकास और उसकी निरन्तरता का वैभव है। इस प्रकार मध्यस्थ क्रिया का स्वयं व्यवहारिक समाधान के रूप में नित्य प्रभावशील होना ही स्थिति के अर्थ को स्पष्ट कर देता है। समविषमात्मक आवेश निरन्तर समस्या का ही प्रकाशन है | इस तथ्य को हृदयंगम करने पर असंदिग्ध रूप में स्पष्ट हो जाता है कि संपूर्ण प्रकृति स्थिति में स्वभाव गति प्रतिष्ठा में ही रहती है जो मध्यस्थ क्रिया “आत्मा” के अनुशासन में होने वाली क्रिया है। यही अनुशासन मध्यस्थ क्रिया बल के रूप में अनुभव, शक्ति के रूप में प्रामाणिकता होती है। यह चैतन्य क्रिया की अभिव्यक्ति में होने वाला वैभव है। प्रत्येक चैतन्य क्रिया की प्रामाणिकता प्रकाशित होने की संभावना रहती हैं। उन संभावनाओं को सर्व सुलभ, सहज सुलभ बना लेना ही पुरुषार्थ का तात्पर्य है। शिक्षा पूर्वक अथवा प्रबोधन पूर्वक प्रामाणिकता आदान-प्रदान करने की वस्तु है। चैतन्य प्रकृति में ही समाधान की नित्य तृषा का होना एवं समाधानपूर्वक नित्य तृप्ति होना पाया जाता है। समाधान और उसकी निरन्तरता के अर्थ में ही संपूर्ण पदार्थ और संबंध का निर्वाह हो पाता है। समाधान ही जीवन सन्तुष्टि का स्रोत होने के कारण समाधान और प्रामाणिकता की परंपरा में ही चैतन्य प्रकृति की परंपरा अथवा संपूर्ण चैतन्य प्रकृति के तृप्त होने की व्यवस्था है। इस निष्कर्ष पर आते है कि चैतन्य प्रकृति में आदान-प्रदान होने वाली, पहचानने और निर्वाह करने की संयुक्त संप्रेषणा की स्वीकृति ही बोध के नाम से जानी जाती हैं। इसी को हृदयंगम कहा जाता है और ऐसा बोध ही अवधारणा है।