भौतिकवाद
by A Nagraj
चैतन्य इकाईयों में पाया जाने वाला अक्षय बल और शक्तियों की सामरस्यता (प्रामाणिकता और समाधान) स्वयं की परस्परता में और परस्पर इकाईयों में त्रिकालाबाधित साम्य हैं। ऐसी सामरस्यता सार्वभौम रूप में, हम मानवों में प्रामाणिकता और समाधान संपन्न होने की व्यवस्था समीचीन है। यही संपूर्ण अनुसंधान, शिक्षा, व्यवस्था, चरित्र और उसकी निरन्तरता का अक्षय स्रोत हैं। मात्रा विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, मनोविज्ञान, व्यवस्था विज्ञान और व्यवहार विज्ञान के मूल रूप में यही प्रमाणिकता और समाधान ही अक्षय स्रोत अक्षय त्राण और अक्षय प्राण है।
शिक्षा-संस्कार ही बोध और अवधारणा का एकमात्र स्रोत है। ऐसे स्रोत को सार्थक रूप देने, उसमें प्रामाणिकता और समाधान की निरन्तरता को बनाये रखना चैतन्य प्रकृति में, से ज्ञानावस्था की इकाई का दायित्व और वैभव होता हैं। जड़ प्रकृति में अंशों का आदान-प्रदान होता हैं। परमाणुओं के स्तर में जिसमें प्रस्थापन होता है वह पहले से ही सामान्य गति में रहता है, जिसमें विस्थापन होता है उसके अनन्तर वह भी सामान्य गति में होना पाया जाता है। सामान्य गति में होने के लिए निरन्तर मध्यस्थ क्रिया में बल समाहित रहता है जिसे हम छिपी हुई ऊर्जा कहते है।
स्वनियंत्रण के अर्थ में ही मध्यस्थ शक्ति क्रियाशील होती है। नियन्त्रण में ही प्रत्येक जड़-चैतन्यात्मक इकाई सुरक्षित रह पाती हैं। अर्थात् उसका अस्तित्व यथावत् बना रहता है। चैतन्य प्रकृति में नियन्त्रण को समाधान और उसकी निरन्तरता के अर्थ में देखा जाता है। इसी बिन्दु में भौतिकता, बौद्घिकता और अध्यात्मिकता का अविभाज्य वैभव दिखाई पड़ता है क्योंकि चैतन्य परमाणु अनुभव पूर्वक ही जागृत होता है। फलत: समाधान का प्रेणता, उद् गाता और प्रबोधक हो पाता है। इसी के परिणाम स्वरुप प्रबोधनपूर्वक, बोध के रूप में दूसरे में इंगित होना भी व्यवहार में देखा जाता है। इसीलिए पदार्थ ही निश्चित विकास के पद में जागृत होने, मध्यस्थ क्रिया से “स्व” का नियन्त्रित होने और मध्यस्थ सत्ता में परस्पर निश्चित दूरी के रूप में संरक्षित रहने की सत्यता अपने आप स्पष्ट होती है। चैतन्य इकाई में मध्यस्थ बल स्वयं आत्मबल और मध्यस्थ शक्ति ही अनुभव और प्रामाणिकता है। जीवन जागृति की स्थिति में बोध, जीवन की अविभाज्य उपलब्धि हो जाती है और अध्यात्मिकता अर्थात् अरूपात्मक अस्तित्व में ओत-प्रोत रहने का बोध परस्पर अच्छी दूरी और ज्ञानमयता अर्थात्