भौतिकवाद

by A Nagraj

Back to Books
Page 61

चेतनामयता के रूप में स्पष्ट होता हैं। इस प्रकार बौद्घिक, भौतिक और अध्यात्मिकता अविभाज्य वर्तमान है।

जागृत जीवन संचेतना अर्थात् संज्ञानीयता में नियंत्रित संवेदनायें प्रकाशित होने वाला अनुभव बल ही बोधपूर्वक विचार शैली में, विचार शैली जीने की कला के रूप में परावर्तित होता है। संचेतना में पाँचों अक्षय बल तथा शक्तियाँ निरन्तर कार्यरत रहती हैं। संचेतना शरीर के माध्यम से प्रकाशमान होने मात्र से शरीर जीवन नहीं होता। संचेतना की अभिव्यक्ति प्रत्येक मानव में होती हैं। संचेतना पहचानने व निर्वाह करने के रूप में परिलक्षित है। पहचानने तथा निर्वाह करने के क्रम में ही जागृति के क्रम में अर्थात् अस्तित्व और विकास को पहचानना बुनियादी आवश्यकता हैं। जागृति, विकास की परम अवस्था हैं। परमाणु में विकास होने की व्यवस्था हैं। जागृति का तात्पर्य अस्तित्व में अनुभूत होना ही हैं। सत्ता में संपृक्त प्रकृति का सत्ता में अनुभूत होना ही अस्तित्व का उद्देश्य हैं। इस को समझने पर ही विकास की यात्रा भी समझ में आती हैं। अस्तित्व के संबंध में जितना भ्रमित रहेंगे उतना ही लक्ष्य के संबध में भ्रमित रहेंगे। इसी को दूसरी प्रकार से देखें तो अस्तित्व में निर्भ्रमता ही लक्ष्य के प्रति निर्भ्रम होने का आधार है। इस प्रकार अस्तित्व, लक्ष्य और विकास के संबंध में निर्भ्रम हो जाना ही विवेक और विज्ञान का प्रयोजन है। इस क्रम में यह स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता में संपृक्त प्रकृति का सत्ता में अनुभूत होने पर्यन्त विकास के लिए बाध्य होना “अस्तित्व सिद्घ सत्य” हुआ। यह स्वयं जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति का लक्ष्य है। पदार्थ अवस्था से प्राणावस्था बिना दिग्भ्रम के विकसित हुई। जीवावस्था से ज्ञानावस्था के निर्भ्रम होने के क्रम में ही मानव अपने को भ्रमित पाता है। इसका संपूर्ण कारण शरीर को जीवन समझना ही है अक्षय बल एवं अक्षय शक्ति संपन्न होने के कारण प्रत्येक मानव जीवन क्षमता की स्थिति में समान हैं। यह समानता हर स्तर में समन्वय होने पर्यन्त लक्ष्य विहीन होने के कारण विरोधाभासी प्रतीत होती है, तब विरोध का विरोध और विरोध के दमनकारी कार्यकलापों में प्रवृत्त हो जाता है। जबकि विरोध का विजय ही जागृति का साक्षी है। संपूर्ण विरोधाभास केवल अस्तित्व, अस्तित्व में विकास और जीवन के भूलाने का परिणाम है।