भौतिकवाद
by A Nagraj
4. स्वभाव- (i) पदार्थावस्था में - संगठन-विघटन
(ii) प्राणावस्था में - सारक-मारक
(iii) जीवावस्था में - क्रूर-अक्रूर
(iv) ज्ञानावस्था में - धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करूणा।
5. अस्तित्व, पुष्टि, आशा और अनुभूति (सुख, शांति, संतोष, आनंद) सहज अर्थ में धर्म है।
इस प्रकार जड़ प्रकृति में रूप और गुण, गणित एवं गुण के द्वारा समझ आता है । स्वभाव व धर्म अस्तित्व में गुण और कारण द्वारा समझ में आते है। धर्म अस्तित्व में ही नित्य वैभवित रहता है। अस्तु, अस्तित्व में मात्रा की समझ के लिए केवल गणित की भाषा पर्याप्त सिद्घ नहीं हुई क्योंकि “गणित आंखों से अधिक एवं समझ से कम होता है।” इसीलिए चैतन्य प्रकृति गणितीय भाषा से व्याख्यायित नहीं हो पाती। इसीलिए हम गुण और कारणात्मक भाषा को भी सीखने के लिए बाध्य है।
गुण, घटनाओं के रूप में परस्पर वर्तमान होता हुआ देखा जाता है। जड़ प्रकृति में समविषमात्मक प्रभाव परस्पर इकाईयों में पड़ता है और स्वयं के समषमात्मक आवेशों को सामान्य बनाने के क्रम में मध्यस्थ शक्ति को कार्यरत होना देखा जाता है। कार्य ऊर्जा बढ़ना ही सम-विषम आवेश है इसी आवेश को सामान्य बनाने के लिए छिपी हुई ऊर्जा प्रभावशील रहती है, जबकि चैतन्य प्रकृति में समाधान और प्रमाणिकता के रूप में मध्यस्थ क्रिया प्रभावशील होती है। समाधान और प्रमाणिकता ही मानव परंपरा के रूप में स्वीकार है। इससे पता चलता है कि चैतन्य प्रकृति में ही मध्यस्थ क्रिया की पूर्ण प्रभावशाली परंपरा होने की व्यवस्था है। इसीलिए विकास होता है।
स्वभाव और धर्म को कारण-कार्य एवं कार्य-कारण पद्घति से समझने की व्यवस्था हैं। स्वभाव प्रत्येक इकाई में अर्थात् जड़-चैतन्यात्मक इकाई में मूल्यों के रूप में वर्तता है। मूल्य प्रत्येक इकाई में स्थिर होता हैं। धर्म अविभाज्य होता हैं। इसी कारणवश मानव में समझने की व्यवस्था है। किसी घटना के मूल के लिए सब आवश्यकीय सघन कारक तत्वों को स्पष्ट कर देना ही गुणात्मक भाषा हुई, जैसे :-