भौतिकवाद
by A Nagraj
अपनी मौलिकता सहित वैभवित होने के पश्चात् पुन: पदार्थावस्था में परिवर्तित होने की व्यवस्था है।
इसी कारणवश प्राणावस्था, पदार्थावस्था की अपेक्षा विकसित हुई सी दिखते हुए भी पदार्थावस्था की अपेक्षा में उसकी स्थिरता और निश्चयता घट जाती है, जबकि संक्रमित विकास यदि होता तो पदार्थावस्था से प्राणावस्था में स्थिरता और निश्चयता अधिक उजागर होनी थी, किन्तु ऐसा नहीं हुआ। अपितु पदार्थावस्था की अपेक्षा में प्राणावस्था की वैविध्यता घट गयी। धरती पर प्राणावस्था और जीवावस्था का प्रगटन ही ज्ञानावस्था के प्रगटन का आधार बना है। पदार्थावस्था में संगठन-विघटन की अपेक्षा प्राणावस्था में रचना की गति तेज है। पदार्थावस्था ही उदात्तीकरण होकर प्राणावस्था के रूप प्रगट होती है। अर्थात् प्रकृति में मनुष्येत्तर प्रकृति के प्रगटन का प्रयोजन ज्ञानावस्था का प्रकटन ही है। जो जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में है। इसको समझने से मानव को धरती पर अपराध करना बनता नहीं है।
जीवावस्था को देखें तो प्राणावस्था में उसमें कम वैविध्यता दिखाई पड़ती है साथ ही यह देखने को मिलता है कि नैसर्गिकता और वातावरण के दबाव में आकर जो वंशानुषंगीयता की स्थिरता रही है, उसको वह बदल देता हैं। जैसे कुत्ता, बिल्ली, गाय पशु आदि मानव के नैसर्गिक दबाव में आकर अपने वंशानुषंगी कार्यकलाप से भिन्न कार्यकलाप करने लगते है इससे पता चलता है कि प्राणावस्था से जीवावस्था में वंशानुषंगीयता की अस्थिरता अथवा अनिश्चयता बढ़ गई तथा वैविध्यता घट गई।
मानव को देखें तो पता चलता है कि मानव में वैविध्यता नहीं के बराबर रह गई। किन्तु इनमें वंशानुषंगीय अस्थिरता चरमावस्था में पहुँच गई। जैसे चोर का बेटा चोर हो ऐसा आवश्यक नहीं। विद्वान की संतान ने विद्वता का अनुकरण नहीं किया, जबकि मूर्ख की संतान विद्वान भी होती है। आश्चर्य की बात है कि मानव फिर भी स्वयं को वंशानुषंगीयता का दावेदार, प्रणेता मान रहा है। यह कितनी दयनीय स्थिति है? जिन वंशानुषंगीयता के आधार पर प्रतिवर्ष ही अनेक निबंध, प्रबंध तैयार हो रहा है ये कहाँ तक मानवोपयोगी है?
“विकास के क्रम में ही पदों की गणना है।”