भौतिकवाद

by A Nagraj

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बीज के मूल में एक ही प्रजाति की प्राण कोशिका की गवाही मिलती है। सप्राण कोशिका और निष्प्राण कोशिकाओं में देखने से यही पता चलता है कि निष्प्राण कोशिकाओं में श्वसन क्रिया नहीं होती जबकि सप्राण कोशिकाओं मे श्वसन क्रिया होती है। इसी श्वसन क्रिया के आधार पर ही सप्राण कोशिकाओं की रचना को पहचाना जाता है। वही रसायन जिसे प्राण कोशिकाओं में देखा गया, दोनों में समान होते हुए भी निष्प्राण में श्वसन क्रिया नहीं पायी जाती । इस प्रकार सप्राण कोशिकाओं और निष्प्राण कोशिकाओं की रचना और क्रिया को स्वयं मौलिक रूप में अस्तित्व में पाया जाता है। इसके तीन प्रधान कारक तत्व सिद्घ होते है। प्रथम - वे अणु, जो प्राण कोशिकाओं के रूप में कार्यरत है जिसका मूल द्रव्य रूप (रासायनिक गठन) है, द्वितीय - वातावरण और तृतीय - नैसर्गिकता है। नैसर्गिकता का तात्पर्य जिस विधि से उस इकाई पर दबाव पड़ा हो उससे है। वातवारण का तात्पर्य इकाई पर प्रभावित दबाव से है। इस प्रकार तीनों कारक तत्व स्वयं स्पष्ट है। बीजानुषंगीयता के क्रम में बीजों के आधार पर रचना (वृक्ष) को और रचनाओं (वृक्षों) के आधार पर बीजों को पहचानने का विश्वास किया जाता है। बीजों के ऊपर ध्यान दें तो पता चलता है कि उसके स्तुषी (अंकुर का मूल रूप) में संपूर्ण रचना (वृक्ष) का स्वरुप नियम और संगति बद्घ रूप में होना पाया जाता है। नियम बद्घ होने का तात्पर्य यह है कि पूर्व रचनाक्रम का अनुकरण करने की क्षमता का होना। संगति बद्घ का तात्पर्य योग संयोग को पाकर अंकुरण में प्रवृत्त होने की योग्यता से है। इसी तथ्यवश प्रत्येक बीज में अनुकूल भूमि और वातावरण को पाकर रचना होने की व्यवस्था रहती हैं। इस क्रम में इसी पृथ्वी पर अनेक बीज और रचनाएँ देखने में आती हैं। इससे स्पष्ट होता है कि सर्वप्रथम एक कोशिका ही अनके कोशिकाओं में परिवर्तित हुई, वह एक ही प्रजाति की रही है। पुन: विभिन्न मापदण्डों के आधार पर अर्थात् प्राण सूत्र में पाये जाने वाले अनुसंधान प्रवृत्ति, वातावरण और नैसर्गिक दबाव के क्रम में अनेकानेक प्रकार की रचनाएँ और बीज इस वर्तमान में धरती पर समृद्घ हुई।

“रचना संपूर्ण विकास नहीं” क्योंकि “जो जिससे बना होता है वह उससे अधिक नहीं होता।” संपूर्ण प्रकृति में भौतिक, रासायनिक, अणु और प्राण कोशिकाओं की रचना प्रसिद्घ है। इन कोशिकाओं की संयुक्त रचना में भी उतने ही गुण विद्यमान रहते हैं। जैसे लोहे से बनी हुई छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी रचना लोहे से न कम और न अधिक होती है। अधिक-कम का मतलब उनके “त्व” (जैसे लोहे में लौहत्व) से हैं। इसी