भौतिकवाद
by A Nagraj
अंशों की संख्या की अजीर्णता है। अजीर्ण परमाणु ही अंशों को बहिर्गमित करके स्वभाव गति में हो जाता है। विकास का तात्पर्य अपरिणामिता के ओर से है। अपरिणामिता की स्थिति तक द्रुत परिणाम, शीघ्र परिणाम, दीर्घ परिणाम के पदों में परमाणुओं को देखा जाता है। तात्विक स्थिति व ज्ञान यही है । इस प्रकार परमाणु में एक से अधिक परमाणु अंशों अर्थात् कम से कम दो अंशों से गठित परमाणुओं का योग प्रारंभ होकर कई अंशों से गठित परमाणुओं का होना सिद्घ हो चुका हैं। प्रकृति में व्यवस्था सहज मूल इकाई परमाणु होने के कारण परमाणु में मात्रा, बल और शक्ति का अविभाज्य वर्तमान होना पाया जाता है।
परमाणु की पूर्वावस्था (परमाणु अंश) में व्यवस्था प्रमाणित नहीं है। व्यवस्था प्रमाणित होने के लिए कम से कम दो परमाणु अंश का होना आवश्यक है क्योंकि सहअस्तित्व में ही व्यवस्था है। जैसे ही एक से अधिक परमाणु एकत्रित होते है वे अणु का पद पाते हैं। वे स्वजातीय व विजातीय भेद से गण्य है। विजातीय परमाणुओं के योग से जो अणु अस्तित्व में होते है वे रासायनिक रूप में जाने जाते हैं। ऐसे रासायनिक अणुओं की विभिन्न प्रजातियाँ होती हैं। ऐसी विभिन्न प्रजातियों के रासायनिक अणु मिलकर विभिन्न रचना तथा रस, उपरस आदि के रूप में प्रकाशित होते हैं। जिस प्रकार एक पौधा अंकुर के रूप में आरंभ होता है, बढ़ता है और एक दिन विरचित हो जाता है। उसे ठीक से देखने पर यह विदित होता है कि अंकुरण के समय से ही उसके बढ़ने में भी मात्रा की कोई स्थिरता नहीं है। इसी के साथ एक व्यक्ति के जन्म को देखें तो यह पता चलता है कि जिस समय शरीर गर्भ में रूप धारण करता है, उसी समय से उसका बढ़ना आरंभ हो जाता है। यह स्वयं में मात्रा के अर्थ में अस्थिरता का द्योतक है। जब गर्भ से शिशु बाहर आता है, उसी क्षण से उसमें परिवर्तन का क्रम देखने को मिलता है। यह परिवर्तन शिशु, किशोर, कौमार्य, युवा, प्रौढ़ और वृद्घावस्थाओं में गण्य होते है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि रचनायें स्थिर नहीं हैं। इससे स्पष्ट है कि रचनाएँ रासायनिक एवं भौतिक सीमावर्ती है। यद्यपि रचनाओं में विकास की लाक्षणिकता अवश्य ही दिखाई पड़ती है तथापि विकासशील और विकास केवल परमाणुओं में ही होता हैं। इसीलिए रचना में विकास सिद्घ नहीं होता। मात्रा में स्थिरता होना ही विकास है इसका प्रमाण अस्तित्व में जीवन (चैतन्य इकाई) है। रचनाएँ विकास क्रम में है।