भौतिकवाद
by A Nagraj
फलत: मध्यस्थ शक्ति ऋण एवं धन आवेशों (शक्तियों) को सामान्य बनाने के लिए सतत कार्य करती रहती है क्योंकि मध्यस्थ शक्ति (क्रिया) का लक्ष्य पूर्णता है। इसका साक्ष्य पूर्णता और उसकी निरन्तरता है। इसी कारण प्रत्येक इकाई (परमाणु) का वर्तमान पूर्ण होने के क्रम में ही व्यवस्था अथवा नियति क्रम स्पष्ट है। यही अस्तित्व में विकासक्रम और विकास का प्रकाशन है।
“विकास परमाणु में होता है।”
प्रत्येक परमाणु गठनपूर्वक परमाणु है । प्रत्येक गठन में एक से अधिक अंश होते हैं। प्रत्येक परमाणु अपने गतिपथ सहित इकाई है। ऐसा गतिपथ स्वयं गठन और गति के आकार को स्पष्ट करता है। प्रत्येक परमाणु में तब तक प्रस्थापन और विस्थापन होता रहता है जब तक गठनपूर्णता न हो जाये। क्योंकि प्रत्येक परमाणु का क्रिया के रूप में होना प्रत्येक क्रिया में श्रम, गति, परिणाम अविभाज्य वर्तमान होता हैं। परिणाम अमरत्व के अर्थ में, श्रम विश्राम के अर्थ में, गति गन्तव्य के अर्थ में अपने आप विकास का लक्ष्य होता हैं। यही लक्ष्य विकास के क्रम और विकास के रूप में स्पष्ट होता है।
जैसे प्रत्येक परमाणु अपने ऋण धनात्मक स्थिति में आवेशित होना और मध्यांश में छिपी हुई ऊर्जा द्वारा उन आवेशों को सामान्य बनाना निरन्तर इस लीला को देखा गया हैं। भौतिक-रासायनिक परमाणु अपने ऋण-धनात्मक स्थिति में आवेशित होने का आशय परिवेशीय अंशों के मध्यांश से दूरी बढ़ने या घटने की स्थिति को कहा है, ऐसी दोनों ही स्थिति में मध्यांश में छिपी हुई ऊर्जा परिवेशीय अंशों को एक निश्चित दूरी पर रखती है। जिसको आवेशों का सामान्य बनाना कहा है। यह इस बात का द्योतक है कि आवेश से मुक्त स्थिति ही स्वयं स्वभाव गति के रूप में गण्य होती है। ऐसी स्वभाव गति की स्थिति में ही प्रत्येक परमाणु में विकास की संभावना निहित होती है।
इस उदाहरण से यह समझ सकते है कि जब किसी भी वस्तु को तात्विक परिवर्तन (परमाणु में निहित परमाणु अंशों की संख्या में परिवर्तन) के लिए बाध्य किया जाता है तब उस स्थिति में हमें यह देखने को मिलता है कि जिस परमाणु में प्रस्थापन होता है वह अपनी स्वभाव गति में रहता है और जिस परमाणु से विस्थापन होता है वह आवेशित गति में रहता है। परमाणु आवेशित गति में रहने का कारण उसमें समाहित