भौतिकवाद

by A Nagraj

Back to Books
Page 48

विकास क्रम में प्रस्थापन-विस्थापन संभावित रहता है । वह अंश जो किसी परमाणु में स्वभाव गति में रहता है, उसमें प्रस्थापित होता हैं। फलत: जिसमें विस्थापन होता है उसमें ह्रास की गणना होती है और जिसमें प्रस्थापन होता है, उसमें विकास होता है अथवा समृद्ध होता चला जाता है। इसी क्रम में, परमाणु के गठन में जितने भी अंशों के समाने की आवश्यकता है, अथवा संभावना है, वह पूर्ण होते तक, उसमें प्रस्थापन के साथ विस्थापन की संभावना भी बनी रहती हैं। इस प्रकार यह सिद्घ हो जाता है कि गठनपूर्णता के अर्थ में प्रत्येक परमाणु में प्रस्थापन और विस्थापन अवश्यंभावी है। यही विकास क्रम की सार्थकता भौतिक-रासायनिक वैभव के रूप में स्पष्ट है। अपरिणामिता तब सिद्घ होती है जब गठनपूर्णता हो जाती है। यही परिणाम (रूप) के अमरत्व का तात्पर्य है। परमाणु के विकास के अन्तर संबंध क्रम में यह प्रथम सफलता है। इस स्थिति में इस परमाणु में किसी भी अंश का प्रस्थापन या विस्थापन किसी भी प्रक्रिया द्वारा नहीं हो पाता। इस सत्यतावश वह परमाणु अक्षय शक्ति संपन्न हो जाता है। यही चैतन्य पद अथवा चैतन्य प्रकृति है। इस प्रकार यह अपने आप में स्पष्ट हो जाता है कि गठनपूर्णता पर्यन्त जड़ प्रकृति एवं गठनपूर्णता के अनन्तर चैतन्य प्रकृति का स्वरुप वैभवित होता है।

“सत्ता में संपृक्त प्रकृति अनन्त इकाईयों का समूह है।” प्रकृति की मूल इकाई परमाणु के रूप में जानी जाती है। क्योंकि जड़-चैतन्य प्रकृति की मूल इकाई परमाणु में ही व्यवस्था स्पष्ट है।

वातावरण और नैसर्गिकता प्रत्येक इकाई के लिए अविभाज्य होने के कारण निष्प्राण और सप्राण कोशिकाएँ परिवर्तन के लिए प्रवर्त्त है। सप्राण कोशिकाओं का इतिहास देखने से पता चलता है कि मूलत: पूर्व में कहे गये वातावरण और नैसर्गिकता के पूरकता में आये हुए एक रासायनिक अणु का सप्राण कोशिका के रूप में अवतरित होना पुन: उसी का स्वयं दो भागों में विभक्त होना तथा फिर दोनों मिलकर उनके जैसे और कोशिकाओं का निर्माण करने की क्रिया रचनाओं के रूप में प्रकाशित हुई। इसको देखने पर वास्तविकता समझ में आती है कि मूलत: एक ही कोशिका एक ही प्रजाति की होते हुए, इस एक कोशिका के लिए वातावरण और नैसर्गिकता के अनुकूल सिद्घ हुआ।