भौतिकवाद

by A Nagraj

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प्रकार वृक्षत्व, लौहत्व, मानवत्व इत्यादि। “त्व” का तात्पर्य इकाई की मौलिकता है। मौलिकता स्वभाव होती हैं। प्रत्येक इकाई में जैसा पहले कहा गया-गाय, घोड़ा आदि में उन के स्वभाव को कम से कम उन-उन रचनाओं को शरीर आयु पर्यन्त स्थिर रखने के क्रम में ही वंशानुषंगीयता स्पष्ट होती गयी। यह एक विलक्षण स्थिति सम्मुख होती है कि इस धरती पर मानव के अतिरिक्त सभी रचनाओं (अवस्थाओं) यथा पदार्थावस्था, प्राणावस्था एवं जीवावस्था में देखने पर पता चलता है कि लोहा जब तक रहता है तब तक उसके त्व में अर्थात् लौहत्व में वैपरीत्यता नहीं होती। उसी भाँति आम, बाघ, भालू, गाय आदि में भी वैविध्यता नहीं होती। जबकि मानव को देखें तो पता चलता है कि इसके विपरीत अर्थात् मानवत्व के विपरीत स्थिति में अधिकतम व्यक्ति प्रकाशित है। तात्पर्य यह कि मानव ही इस धरती पर ऐसी एक इकाई है जो मानवत्व के विपरीत कार्य, व्यवहार-विन्यास करते हुए भी अपने को श्रेष्ठ और विकसित होने का दावा करता है। जैसे अधिकतम शोषण एवं युद्घ में समर्थ व्यक्ति, परिवार, समाज अथवा राष्ट्र को विकसित समझा जा रहा है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मानव अपने त्व को वंशानुषंगीयता में खोजने के अरण्य में भटक गया है या मिटने की तैयारी में आ गया है। मानव का वर्चस्व वंशानुषंगीयता में उज्जवल एवं अनुकरण होने की व्यवस्था होती तब क्या होता? या तो वंशानुषंगीयता के समर्थक कहलाने वालों के अनुसार मानव के पूर्वज जैसे बन्दर थे वे मानव क्यों बन गये? बदल क्यों गये? या तो बदलना को विकास समझ लें। इसी प्रकार, पूर्व पीढ़ी का ज्ञान दूसरी पीढ़ी को बिना समझे व सीखे क्यों नहीं आता? यह उन मनीषियों के लिए विचार करने का एक मुद्दा है।

पदार्थावस्था परिणामकारिता के साथ अथवा परिणाम बीज के रूप में देखी जाती है क्योंकि पदार्थ में मात्रात्मक परिवर्तन के बिना गुणात्मक परिवर्तन नहीं होता और पदार्थावस्था में जो कुछ भी तात्विक परिवर्तन है, वह सब किसी न किसी पद के अर्थ को स्पष्ट करता है । ऐसा प्रत्येक पद विकास के क्रम में कड़ी के रूप में दृष्टव्य है यह कड़ी स्वयं ही विकास का साक्ष्य है। इस प्रकार पदार्थावस्था में जितनी भी संख्या में तात्विक रूप की व्यवहारिक व्यवस्था है, वह स्वयं में स्थिर और निश्चित है। जब वह पदार्थ प्राणावस्था में होता है उसे हम विकास की संज्ञा भाषा रूप में देते हैं। अपेक्षाकृत अर्थात् पदार्थावस्था की अपेक्षा में प्राण कोशिकाओं की जाति प्रजाति कम होने से हैं। दूसरी, परिणामानुषंगीय बीजानुषंगीयता में गण्य हो जाती हैं। पदार्थावस्था में से प्राणावस्था