भौतिकवाद

by A Nagraj

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अध्याय - 5

अस्तित्व में परमाणु का विकास

मानव अस्तित्व में ही कार्य-व्यवहार, विचार और अनुभव करना चाहता है। अस्तित्व में, अस्तित्व के अतिरिक्त समझने, सोचने, कार्य-व्यवहार अथवा अनुभव करने का कोई आधार नहीं होता, क्योंकि अस्तित्व से अधिक और कम सभी कल्पनायें भ्रम ही होती हैं।

भ्रम का तात्पर्य सत्य सा प्रतीत होते हुए सत्य न होना है। अस्तित्व सत्ता में अर्थात् अरूपात्मक अस्तित्व में संपृक्त प्रकृति (रूपात्मक अस्तित्व) है। इसलिए अध्ययन के लिए संपूर्ण वस्तु अस्तित्व ही है।

अरूपात्मक अस्तित्व की पहचान :-

अरूपात्मक अस्तित्व स्वयं में निरपेक्ष ऊर्जा के रूप में वैभवित है। यह गति, तरंग, दबाव विहीन नित्य वर्तमान स्थिति में है। साथ ही सर्वकाल में एक सा विद्यमान भासमान और बोध व अनुभवगम्य है। इसी सत्यतावश अरूपात्मक अस्तित्व मूल रूप में साम्य ऊर्जा, परम ऊर्जा अथवा निरपेक्ष ऊर्जा के अर्थ में नित्य विद्यमान है। यही निरपेक्ष सत्ता है । इसे हर एक-एक की परस्परता के मध्य में होना पाया जाता है।

“सत्ता स्थितिपूर्ण है। सत्ता में संपृक्त प्रकृति स्थितिशील है।” सत्ता स्थितिपूर्ण होने की सत्यता उसकी व्यापकता से सिद्घ होती है क्योंकि अरूपात्मक अस्तित्व न हो, ऐसा कोई स्थान और काल सिद्घ नहीं होता।

सत्ता में संपृक्त प्रकृति अनन्त इकाईयों का समूह है। इकाई का तात्पर्य छ: ओर से सीमित पदार्थ पिण्ड से है। प्रकृति की मूल इकाई परमाणु है क्योंकि परमाणु में ही विकास और ह्रास सिद्घ होता है। परमाणुओं का निश्चित गतिपथ सहित अस्तित्व में होना पाया जाता है। ऐसे गति पथ और परमाणु अंशों के सभी ओर अरूपात्मक अस्तित्व दिखाई पड़ता हैं। इससे स्पष्ट होता है कि अरूपात्मक अस्तित्व में ही संपूर्ण